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________________ २४६ प्रज्ञापना सूत्र ooooooooooooooooooooooooooooooooooo000 수수 있roooooooooooooooo o oooooo कहलाते हैं। चाहे वे जीव वर्तमान में अपर्याप्तक ही क्यों न हो? स्व योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं करेंगे अर्थात् पूर्ण किये बिना ही काल करने वाले वे जीव 'लब्धि अपर्याप्तक' कहलाते हैं। एवं जाव पंचिंदियअपजत्तए। भावार्थ - इसी प्रकार एकेन्द्रिय-अपर्याप्तक से लेकर यावत् पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक अपर्याप्त रूप में अवस्थिति (रहने) के विषय में समझना चाहिए। सइंदियपजत्तए णं भंते! सइंदियपजत्तए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेग। . भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में कितने कालं तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! सेन्द्रिय-पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्व सांगरोपम से कुछ अधिक काल तक सेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में बना रहता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सेन्द्रिय पर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट कुछ अधिक शत पृथक्त्व सागरोपम की कही गयी है। यहाँ लब्धि की अपेक्षा पर्याप्तक समझना चाहिए और वह पर्याप्तपना विग्रह गति में भी करण अपर्याप्तक को भी संभव है तभी उत्कृष्ट कायस्थिति घटित हो सकती है अन्यथा करण पर्याप्तक का उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त न्यून ३३ सागरोपम प्रमाण होने से पूर्वोक्त उत्तर घटित नहीं हो सकता। एगिदियपजत्तए णं भंते! पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखिज्जाइं वाससहस्साइं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! एकेन्द्रिय-पर्याप्तक कितने काल तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में बना रहता है? उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक एकेन्द्रिय पर्याप्तक रूप में बना रहता है। विवेचन - एकेन्द्रिय पर्याप्तक उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष तक एकेन्द्रिय पर्याप्तक रूप से बना रहता है। इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भव स्थिति २२ हजार वर्ष की, अप्कायिक की ७ हजार वर्ष की, तेजस्कायिक की तीन अहोरात्रि, वायुकायिक की ३ हजार वर्ष की और वनस्पतिकायिक. की १० हजार वर्ष की कही गयी है। इनके कितनेक निरन्तर पर्याप्तक भव मिल कर भी संख्यात हजार वर्ष ही होते हैं। अतः एकेन्द्रिय पर्याप्तक की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्षों की कही गयी है। पृथ्वीकाय आदि पर्याप्तकों के उत्कृष्ट स्थिति के तो लगातार आठ भव ही होते हैं। जघन्य एवं मध्यम स्थिति के अनेकों भव हो सकते हैं किन्तु उन सब भवों की स्थिति भी उत्कृष्ट स्थिति के आठ भवों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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