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________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-तृतीय उद्देशक - कृष्णादि लेश्या वाले नैरयिकों में..... ÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒ0000 विवेचन प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक से लगाकर वैमानिक पर्यन्त प्रत्येक दण्डक के जीव की संभावित लेश्याओं को लेकर सामूहिक उत्पाद और उद्वर्त्तन की प्ररूपणा की गयी है। कृष्णादि लेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान दर्शन की क्षमता - कण्हलेस्से णं भंते! णेरइए कण्हलेस्सं णेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणइ, केवइयं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! णो बहुयं खेत्तं जाणइ, णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणइ, णो दूरं खेत्तं पास, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ, इत्तरियमेव खेत्तं पासइ । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ - ' कण्हलेस्से णं णेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ?' गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसम रमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाव पासइ जाव इत्तरियमेव खेत्तं. पासइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- 'कण्हलेस्से णं णेरइए जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ।' कठिन शब्दार्थ पणिहाए- प्रणिधाय अपेक्षा से, सव्वओ सर्वतः सभी (चारों दिशाओं में), समंता-समंतात सभी (चारों विदिशाओं में), ओहिणा - अवधिज्ञान से, समभिलोएमाणे समवलोकन करता (देखता) हुआ, इत्तरियं - थोडा अधिक, बहुसम रमणिज्जंसि - बहुत सम एवं रमणीय, भूमिभागंसि - भूमि भाग पर, धरणितलगयं भूतल पर स्थित । १९९ budddd - Jain Education International - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या वाला नैरयिक कृष्ण लेश्या वाले दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधिज्ञान के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और अवधिदर्शन से कितने क्षेत्र को देखता है ? उत्तर - हे गौतम! एक कृष्णलेशी नैरयिक दूसरे कृष्ण लेश्या वाले नैरयिक की अपेक्षा न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत अधिक क्षेत्र को देखता है, न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को देख पाता है, वह थोड़े से (कुछ) अधिक क्षेत्र को जानता है और थोड़े से ही अधिक क्षेत्र को देख पाता है। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण लेश्या युक्त नैरयिक न बहुत क्षेत्र को जानता है यावत् थोड़े से ही क्षेत्र को देख पाता है ? For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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