SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या सभी नैरयिक समान आयुष्य वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि सभी नैरयिक समान आयु वाले नहीं होते ? - उत्तर - हे गौतम! नैरयिक चार प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं १. कई नैरयिक समान आयु वाले और समान ( एक साथ) उत्पत्ति वाले होते हैं २. कई समान आयु वाले किन्तु. विषम उत्पत्ति (आगे-पीछे उत्पन्न होने वाले होते हैं, ३. कई विषम (असमान) आयु वाले और एक साथ उत्पत्ति वाले होते हैं तथा ४. कई विषम आयु वाले और विषम ही उत्पत्ति वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम! सभी नैरयिक न तो समान आयु वाले होते हैं और न ही समान उत्पत्ति (एक साथ उत्पन्न होने वाले होते हैं। विवेचन - उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में दी हुई चौभंगी को इस प्रकार समझना चाहिये - १. जिन नैरयिकों ने दस हजार वर्ष का आयुष्य बांधा है और एक साथ उत्पन्न हुए हैं. - यह पहला भंग २. दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नरकावास में कितनेक पहले उत्पन्न हुए है और कुछ बाद में उत्पन्न हुए हैं - यह दूसरा भंग ३. अन्य नैरयिकों ने विषम-भिन्न आयुष्य बांधा है जैसे कितनेक दस हजार वर्ष की स्थिति वाले हैं और कितनेक पन्द्रह हजार वर्ष की स्थिति वाले हैं अर्थात् नरक संबंधी असमान आयुष्य बांधा है और साथ उत्पन्न हुए हैं यह तीसरा भंग ४. कितनेक सागरोपम की स्थिति वाले हैं और कितनेक दस हजार वर्ष की स्थिति वाले हैं इस प्रकार विषम स्थिति वाले हैं और अलग-अलग समय में उत्पन्न हुए हैं, यह चौथा भंग है । - भवनवासी देवों में सात द्वार की प्ररूपणा असुरकुमारा णं भंते! सव्वे समाहारा ? एवं सव्वे वि पुच्छा । गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ० ? जहा णेरड्या । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सभी असुरकुमार क्या समान आहार वाले होते हैं ? इत्यादि पृच्छा पूर्ववत् । उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । शेष सब निरूपण नैरयिकों की आहारादि- प्ररूपणा के समान जानना चाहिए। असुरकुमारा णं भंते! सव्वे समकम्मा ? गोयमा! णो इणट्ठे समट्ठे | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy