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________________ १४६ प्रज्ञापना सूत्र buddudibido भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या नैरयिक सभी समान आहार वाले होते हैं, सभी समान शरीर वाले होते हैं तथा सभी समान उच्छवास-नि:श्वास वाले होते हैं? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नैरयिक सभी समाहार नहीं होते हैं, यावत् सम उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं होते हैं? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - महाशरीर वाले और अल्पशरीर वाले। उनमें से जो महाशरीर वाले नैरयिक होते हैं, वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत से पुद्गलों को परिणत करते हैं, बहुत-से पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और बहुत से पुद्गलों का नि:श्वास छोड़ते हैं। वे बार-बार आहार करते हैं, बार-बार पुद्गलों को परिणत करते हैं, बार-बार उच्छ्वास लेते हैं और बार-बार निःश्वास छोड़ते हैं। उनमें जो अल्प (छोटे) शरीर वाले हैं, वे थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं, थोड़े पुद्गलों को परिणत करते हैं, थोडे पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और अल्पतर पुद्गलों का नि:श्वास छोड़ते हैं। वे कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् पुद्गलों को परिणत करते हैं तथा कदाचित् उच्छ्वास लेते हैं और कदाचित् निःश्वास छोड़ते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान आहार वाले नहीं होते, समान शरीर वाले नहीं होते और न ही समान उच्छ्वास-नि:श्वास वाले होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों में सम आहार आदि का वर्णन किया गया है। जिन नैरयिकों का शरीर अपेक्षाकृत विशाल होता है वे महाशरीर वाले कहलाते हैं और जिन नैरयिकों का शरीर अपेक्षाकृत छोटा होता है वे अल्प शरीर वाले कहलाते हैं। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा नैरयिकों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ धनुष परिमाण होती है। उत्तर वैक्रिय शरीर की अपेक्षा अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष की होती है। यहाँ आहार से भी पहले शरीर की विषमता बताने का कारण यह है कि शरीर की विषमता बतला देने से आहार की विषमता शीघ्र समझ में आ जाती है। ... जो महाशरीर वाले नैरयिक हैं वे लघु (छोटे) शरीर वाले नैरयिकों की अपेक्षा. अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं, अधिक पुद्गलों को परिणत करते हैं और अधिक पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं। इसलिए सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान श्वासोच्छ्वास वाले नहीं होते हैं। ___ यहाँ पर अल्प शरीर, महा शरीर प्रत्येक नरक के नैरयिक जीवों के समझा जाता है। मात्र सातवीं नरक के नैरयिकों को ही महा शरीरी नहीं समझ कर सातों नरक के नैरयिकों को समझना चाहिए। अल्प शरीरी में अपर्याप्त जीवों को तथा पर्याप्त होने के बाद भी जब तक अवगाहना परिपूर्ण न बने उस अवस्था तक के नैरयिक जीवों को समझा जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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