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प्रज्ञापना सूत्र
सत्पर्याय की अपेक्षा से विनाश और उत्तरवर्ती असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम है। प्रस्तुत पद में जीव और अजीव दोनों के परिणामों का विचार किया गया है।
प्रस्तुत पद में इसी परिणामिनित्यता का अनुसरण करते हुए सर्व प्रथम जीव के परिणामों के भेदप्रभेद बताए गये हैं, तत्पश्चात् नरक आदि चौबीस दण्डकों में उनका विचार किया गया है।
किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं हो जाता, किन्तु उसका रूपान्तर या अवस्थान्तर होता है। पूर्व रूप का नाश होता है, तो उत्तर रूप का उत्पाद होता है, यही परिणामवाद का मूल आधार है। इसीलिए जैन दर्शन के प्रधान ग्रन्थ 'तत्त्वार्थ सूत्र' में बताया गया है कि - 'तद्भावः परिणामः' अर्थात् उसका होना, यानी स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न या नष्ट होना परिणाम है। इस दृष्टि से मनुष्य आदि गति, इन्द्रिय, योग, लेश्या, कषाय, आदि विभिन्न अपेक्षाओं से जीव चाहे जिस रूप में या अवस्था या पर्याय में उत्पन्न या विनष्ट होता हो उसमें आत्मत्व अर्थात् मूल जीव द्रव्यत्व ध्रुव रहते हुए विभिन्न रूपान्तरों या अवस्थान्तरों में परिणमन होना परिणाम कहलाता है। ___ परिणाम वैसे तो अनेक प्रकार के होते हैं, किन्तु मुख्यतया दो द्रव्यों का आधार लेकर परिणाम होते हैं, इसलिए शास्त्रकार ने परिणाम के दो मुख्य प्रकार बताए हैं - जीव परिणाम और अजीव परिणाम। जीवों के गति आदि की पर्याय के परिवर्तन से होने वाली अवस्था जीव परिणाम है।
प्रज्ञापना सूत्र के बारहवें पद में औदारिक आदि शरीर के भेद बताये गये हैं। ये शरीर के भेद बिना परिणाम के संभव नहीं है। अतः सूत्रकार इस तेरहवें पद में परिणाम का स्वरूप फरमाते हैं जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
___ परिणाम के भेद काविहे गं भंते। परिणामे पण्णते? . गोपमा। परिणामे दुविहे पण्णते। तंजहा - जीव परिणामे प अजीव परिणामे । भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन्! परिणाम कितने प्रकार के कहे गये है?
उत्तर - हे गौतम। परिणाम दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. जीव परिणाम और २. अजीव परिणाम।
____जीव परिणाम प्रज्ञापना जीव परिणामे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते?
गोयमा! दसविहे पण्णत्ते। तंजहा - गइ परिणामे १, इंदिय परिणामे २, कसाय परिणामे ३, लेसा परिणामे ४, जोग परिणामे ५, उवओग परिणामे ६, णाण परिणामे ७, दंसण परिणामे ८, चरित्त परिणामे ९, वेय परिणामे १०॥४१४॥
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