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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-द्वितीय उद्देशक - अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होंगी। मनुष्यों और सर्वार्थसिद्ध देवों को छोड़कर सबकी स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं, परस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं। मसाणं इत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा अनंता । भावार्थ - मनुष्यों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हुई हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होंगी। एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते, णवरं सट्ठाणे अतीता अनंता, बद्धेल्लगा सिय संखिजा सिय असंखिज्जा, पुरेक्खडा अनंता । भावार्थ - मनुष्यों की असुरकुमारत्व से लेकर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व रूप में अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा इसी प्रकार पूर्ववत् समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि मनुष्यों की स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हुई हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होंगी। मणूसाणं भंते! विजय वेजयंत जयंत अपराजियदेवत्ते केवइया दविदिया अतीता ? गोयमा ! संखिज्जा । केवइया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । ९१ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! मनुष्यों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित - देवत्व के रूप • में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हुई हैं ? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य को विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात हैं। भावार्थ प्रश्न हे भगवन् ! उनकी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? उत्तर - हे गौतम! उनकी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं। ÖÒÒÒÒÒÒ Jain Education International केवइया पुरेक्खडा ? सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा । एवं सव्वट्टसिद्धगदेवत्ते वि । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होंगी ? उत्तर - हे गौतम! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात होंगी, कदाचित् असंख्यात होंगी। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध देवत्व रूप में भी अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। वाणमंतर जोइसियाणं जहा णेरइयाणं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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