SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ प्रज्ञापना सूत्र .....30AMMA __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमारों के वैक्रिय शरीर कितने कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमारों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्यात हैं। काल से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्र से प्रतर के असंख्यातवें भाग रूप असंख्यात श्रेणियाँ हैं वे श्रेणियों की विष्कंभ सूची अंगुल के प्रथम वर्ग मूल के संख्यातवें भाग परिमाण जानना चाहिए। उनमें जो मुक्त शरीर हैं वे औदारिक शरीर मुक्त शरीर के अनुसार कहना चाहिये। ___आहारक शरीरों के विषय में जैसा इनके औदारिक शरीर के लिए कहा है उसी प्रकार कहना . चाहिए। दोनों प्रकार के बद्ध और मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का कथन वैक्रिय शरीरों के समान समझ लेना चाहिए। यावत् स्तनित कुमारों तक इसी प्रकार जानना चाहिए। ___असुरकुमारों के वैक्रिय बद्ध - अंगुल (उत्सेधागुंल की लम्बी एक प्रदेशी चौड़ी श्रेणि) के प्रथम वर्गमूल से कोई आधे न समझ ले एवं द्वितीय वर्गमूल जितने समझने पर असंख्यातवें भाग जितने हो जाते हैं। इस बात को समझने के लिए ही टीका में कल्पित असत्कल्पना में प्रथम वर्ग मूल के आधे आठ एवं द्वितीय २९ वर्गमूल रूप चार श्रेणियों के प्रदेश तुल्य नहीं बताकर ५-६ श्रेणियों के प्रदेश तुल्य अर्थात् प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग रूप बताये हैं। भवनपति के एक-एक निकाय के देव-देवीप्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग जितने हैं एवं सभी (दशों) मिलाकर भी प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग जितने ही हैं। पंच संग्रह में व अनुयोग द्वार सूत्र में प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग बताया वह ठीक नहीं है। असंख्यातवां भाग मानने पर 'महा दण्डक की अल्प बहुत्व' से विरोध आता है। (अनुयोग द्वार - हारिभद्रीयवृत्ति में तो 'प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग जितने बताये हैं।') असत्कल्पना से मान लेवे - असुरकुमार आदि १० निकाय पहले वर्गमूल जितने भी हो जावे तो भी उनसे नारक जीव असंख्यात गुणा हो जाते हैं। परन्तु यहाँ तो भवनपति 'पहले वर्ग मूल के भी संख्यातवें भाग जितने ही बताये हैं। असुरकुमार के वैक्रिय बद्धलक प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग अर्थात् पांच छह श्रेणियों के प्रदेश जितने बताये हैं। ऐसे ही असत्कल्पना से वैमानिकों को आठ श्रेणियों के प्रदेश जितने बताये हैं परन्तु एक ही प्रकार की असत्कल्पना से तो वैमानिक अधिक हो जाते हैं किन्तु असुरकुमार ही है अत: अपने अपने लिए की गई असत् कल्पना को उस बोल तक ही सीमित समझना चाहिये। यदि बड़ी संख्या वाली राशि लेकर इसे घटित किया जाय तो एक ही प्रकार की असत्कल्पना से भी संगति हो जाती है। जैसे असंत्कल्पना से पांचवें वर्ग की संख्या को अंगुल प्रथम वर्गमूल माना है (पांचवें वर्ग की संख्या ४२९४९६७२९६) इसका दूसरा वर्गमूल ६५५३६ व तीसरा वर्गमूल २५६ है। दूसरे व तीसरे को गुणा करने पर यह संख्या - १६७७७२१६ जितनी हुई इतने वैमानिक देव हैं। असुरकुमार को पहले वर्गमूल के संख्यातवें भाग (कल्पना से तीसरे भाग जितने) मानने पर ४२९४९६७२९६ : ३-१४३१६५५७६५ इतने भवनपति (असुरकुमार आदि दसों) देव हैं। तिर्यंच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy