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________________ बारहवाँ शरीर पद - शरीरों के बद्ध-मुक्त भेद ३७९ मुक्त औदारिक शरीर अनंत होते हैं। काल से अनंत उत्सर्पिणियों और अनंत अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं उतने मुक्त औदारिक शरीर हैं। क्षेत्र से वे अनंत लोक परिमाण हैं। अर्थात् अनंत लोक के जितने आकाश प्रदेश हैं। उतने ही मुक्त औदारिक शरीर हैं। मुक्त औदारिक शरीर अभव्य जीवों से अनन्त गुणा होते हैं और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही है। केवइया णं भंते! वेउव्विय सरीरया पण्णत्ता? . गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - बद्धेल्लया (बद्धेल्लगा) य मुक्केल्या (मुक्केल्लगा) य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजइ भागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहेव वेउव्वियस्स वि भाणियव्वा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. बद्ध और २. मुक्त। उनमें से जो बद्ध हैं वे असंख्यात हैं, काल से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों से अपहृत होते हैं, क्षेत्र से प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश परिमाण हैं। उनमें से जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं। काल से अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों से अपहृत होते हैं। जिस प्रकार औदारिक के मुक्त शरीरों के विषय में कहा है उसी प्रकार वैक्रिय के विषय में भी कह देना चाहिये। विवेचन - बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं। अगर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाय तो समस्त वैक्रिय शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियां व्यतीत हो जाए अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात श्रेणी परिमाण है और उन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है यानी प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर होते हैं। प्रश्न - श्रेणी के परिमाण से क्या आशय है ? उत्तर - घनीकृत लोक सब ओर से ७ रज्जु प्रमाण होता है। ऐसे लोक की लम्बाई में ७ रज्जु एवं मुक्तावली के समान एक आकाश प्रदेश की पंक्ति श्रेणी कहलाती है। घनीकृत लोक का सात रज्जु परिमाण इस प्रकार होता है- सम्पूर्ण लोक ऊपर से नीचे तक चौदह रज्जु परिमाण है। उसका विस्तार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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