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________________ ३६२ गोयमा ! संतरं णिसिरड़, णो णिरंतरं णिसिरइ । संतरं णिस्सिरमाणे एगेणं समएणं गेहइ, एगेणं समएणं णिसिरइ, एएणं गहणणिसिरणोवाएणं जहण्णेणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखिज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं गहणणिसिरणोवायं करेइ ॥ ३९७ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिसिरइ - निकालता है, गहणणिसिरणोवाएणं - ग्रहण और निःसरण के उपाय से । प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर निकालता है ? उत्तर - हे गौतम! जीव उन्हें सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता है । सान्तर निकालता हुआ जीव एक समय में ग्रहण करता है और दूसरे समय में निकालता है। इस ग्रहण और निःसरण उपाय से जीव जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त्त तक ग्रहण और निःसरण करता है। विवेचन भाषा रूप में ग्रहण किये हुए द्रव्यों को जीव सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता। सान्तर भाषा पुद्गलों को निकालने वाला जीव पहले समय में ग्रहण करता है दूसरे समय में निकालता है। इस तरह जघन्य दो समय के अन्तर से उत्कृष्ट असंख्यात समय यानी अन्तर्मुहूर्त के अन्तर से निकालता है । - सान्तर निस्सरण - यद्यपि ग्रहण के अनन्तर समय में भाषा के पुद्गल निकलने से उत्कृष्ट असंख्यात समयों तक निरन्तर निकलते हुए भी जिस समय ग्रहण करते हैं उसी समय के उनका निस्सरण नहीं होने से आगमकारों ने सान्तर निस्सरण ही बताया है। क्योंकि निस्सरण तो गृहीत पुद्गलों का ही होता है। ग्रहण तो नये-नये पुद्गलों का होने से एवं प्रति समय चालू रहने से निरन्तर ग्रहण भी बताया है। Jain Education International शंका - निरन्तर निस्सरण नहीं बताने का क्या कारण है ? समाधान - प्रथम समय में गृहीत पुद्गलों का उसी ( प्रथम ) समय में निस्सरण होवे तो निरन्तर निस्सरण हो सकता है परन्तु इस प्रकार होता नहीं है। प्रथम समय में गृहीत पुद्गलों का निस्सरण दूसरे समय में होता है अर्थात् ग्रहण के अनन्तर समय में निस्सरण होता है । उसी समय में निस्सरण नहीं होने. से निरन्तर निस्सरण नहीं बताया है तथा प्रथम समय के गृहीत पुद्गल यदि अनेक समय तक निकलते रहे तो भी निरन्तर निस्सरण हो सकता है जैसे- प्रथम समय (सर्व बन्ध) के गृहीत आहार के पुद्गल अन्तिम समय (यावज्जीवन) तक निकलते रहते हैं । परन्तु भाषा के पुद्गलों में ऐसा नहीं होता है। प्रथम समय के गृहीत पुद्गल द्वितीय समय में सभी एक साथ निकल जाते हैं अतः यहाँ पर निरन्तर निस्सरण नहीं बताया है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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