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.. दसवां चरम पद - वर्णादि चरम-अचरम
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णेरइए णं भंते! फास चरिमेणं किं चरिमे अचरिमे? गोयमा! सिय चरिमे, सिय अचरिमे। एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! एक नैरयिक जीव स्पर्श चरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है?
उत्तर - हे गौतम! एक नैरयिक स्पर्श चरम की अपेक्षा से कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। इसी प्रकार लगातार एक वैमानिक देव तक कह देना चाहिए।
णेरड्या णं भंते! फास चरिमेणं किं चरिमा अचरिमा? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि। एवं णिरंतरं जीव वेमाणिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनेक नैरयिक जीव स्पर्श चरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ?
उत्तर - हे गौतम! स्पर्श चरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक जीव चरम भी हैं और अचरम भी हैं। इसी प्रकार की प्ररूपणा लगातार अनेक वैमानिक देवों तक करनी चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्ण आदि की अपेक्षा चरम-अचरम का निरूपण किया गया है। जिस जीव के लिए वर्ण, गन्ध, रस या स्पर्श अन्तिम हो, फिर उसे प्राप्त न हो, वह वर्णादि-चरम है, जिसे पुनः वर्णादि प्राप्त हो रहे हैं, होंगे भी, वह वर्णादि-अचरम है।
संगहणी गाहा"गइ ठिइ भवे य भासा आणापाणु चरिमे य बोद्धव्वा।
आहार भाव चरिमे वण्णरसे गंधफासे य"॥३७१॥ संग्रहणी गाथा का अर्थ - १. गति २. स्थिति ३. भव ४. भाषा ५. आनापान (श्वासोच्छ्वास) ६. आहार ७. भाव ८. वर्ण ९. गन्ध १०. रस और ११. स्पर्श, इन ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से जीवों की चरम-अचरम प्ररूपणा समझनी चाहिए।
विवेचन - उपरोक्त ग्यारह द्वारों के माध्यम से एक वचन और बहुवचन के रूप में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के चरम-अचरम विषयक प्रश्नों के उत्तर एक सरीखे हैं। एकवचनात्मक नैरयिक जीव कदाचित् चरम है, कदाचित् अचरम है, अर्थात् कोई नैरयिक आदि चरम होता है, कोई अचरम। इसी प्रकार बहुवचनात्मक नैरयिक जीव चरम भी हैं और अचरम भी हैं।'
॥पण्णवणाए भगवईए दसमं चरमपयं समत्तं॥ . ॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र का दसवाँ चरम पद समाप्त॥
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