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________________ . दसवां चरम पद - परमाणु पुद्गन आदि के चरम अचरम . ३०५ .......... समझना चाहिए। पंचप्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, सातवाँ, नववा, दसवां, ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवां, तेईसवाँ, चौबीसवां और पच्चीसवां भंग जानना चाहिए॥१, २, ३॥ षट्प्रदेशी स्कन्ध में दूसरा, चौथा, पांचवां, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सतरहवाँ, अठारहवाँ, बीसवाँ, इक्कीसवाँ और बाईसवाँ छोड़कर शेष भंग होते हैं ॥४॥ सप्तप्रदेशी स्कन्ध में दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें, अठारहवें और बाईसवें भंग के सिवाय शेष भंग होते हैं ॥५॥ शेष सब स्कन्धों अष्टप्रदेशी से लेकर संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में दूसरा, चौथा, पांचवाँ, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सतरहवाँ, अठारहवाँ, इन भंगों को छोड़ कर, शेष भंग होते हैं ॥ ३६५॥ विवेचन - परमाणु द्विप्रदेशी स्कंध आदि में पाये जाने वाले भंगों की संख्या संग्रहणी गाथाओं में दी गयी है। जो इस प्रकार है - परमाणु में एक (तीसरा) भंग पाया जाता है। द्वि प्रदेशी स्कंध में दो (पहला, तीसरा) भंग। तीन प्रदेशी स्कंध में चार (पहला, तीसरा, नववाँ, ग्यारहवाँ) भंग। चार प्रदेशी स्कंध में सात (पहला, तीसरा, नववां, दसवाँ, ग्यारहवां, बारहवाँ, तेवीसवां) भंग। पांच प्रदेशी स्कंध में ग्यारह (पहला, तीसरा, सातवां, नववां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां, तेवीसवां, चौबीसवां, पच्चीसवां) भंग। छह प्रदेशी स्कन्ध में पन्द्रह (पहला, तीसरा, सातवां, आठवां, नववां, दसवाँ, ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां, चौदहवां, उन्नीसवां, तेवीसवां, चौबीसवां, पच्चीसवां, छब्बीसवां) भंग। सात प्रदेशी स्कंध में सतरह (पहला, तीसरा, सातवां, आठवाँ, नववां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां, चौदहवां, उन्नीसवां, बीसवां, इक्कीसवां, तेवीसवां, चौबीसवां, पच्चीसवां, छब्बीसवां) भंग। आठ प्रदेशी स्कन्ध से अनन्त प्रदेशी स्कंध तक अठारह भंग (पूर्वोक्त सतरह और एक बावीसवां) पाये जाते हैं। दूसरा, चौथा, पांचवां, छठा, पन्द्रहवां, सोलहवां, सतरहवां, अठारहवां, ये आठ भंग शून्य हैं अर्थात् किन्ही भी स्कन्धों में ये आठ भंग नहीं पाये जाते हैं। उपर्युक्त स्थापना वाले भंगों में जो दो का अंक २रखा गया है उसका अर्थ – 'समश्रेणी में उसके ऊपर अथवा नीचे की तरफ, 'अवक्तव्य' के रूप में प्रदेश लगा हुआ है। उपरोक्त भंगों में से जिन-जिन भंगों में अवक्तव्य है। उन भंगों में से अवक्तव्य के प्रदेश को टीकाकार विश्रेणी (विदिशा की श्रेणी) में स्थापना करते हैं परन्तु विश्रेणी में रहा हुआ एक परमाणु रूप अवक्तव्य से दूसरे परमाणु का स्पर्श नहीं होता। क्योंकि वह (परमाणु) तो "सव्वेणं सव्वं फुसइ" होता है। इसीलिए तो भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक ९ में आठ रुचक प्रदेश के तीन-तीन प्रदेशों के ही स्पर्श बताया गया है। किन्तु विश्रेणी का स्पर्श नहीं माना गया है। अत: चरम के साथ अवक्तव्य की स्थापना अपर या नीचे की श्रेणी या प्रतरान्तर में करनी चाहिये। विषम श्रेणी का अर्थ समश्रेणी के ऊपर या नीचे की श्रेणी समझना चाहिये, किन्तु विदिशा की श्रेणी नहीं समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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