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________________ प्रज्ञापना सूत्र ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆❖❖❖❖❖0000000000❖❖❖❖❖❖❖❖❖000000000❖❖❖❖❖❖❖0000000000000000000000000000000 २८४. विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी के द्रव्यार्थ की अपेक्षा चरम और अचरम का अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़ा - एक अचरम द्रव्य (मध्यवर्ती खण्ड एक ही होने से ) । २. उनसे चरम द्रव्य असंख्यात गुणा ( किनारे के खण्ड असंख्यात होने से )। ३. उनसे चरम अचरम द्रव्य विशेषाधिक (एक अचरम खण्ड इसमें मिल जाने से ) । प्रदेशार्थ की अपेक्षा से (चरम - अचरम प्रदेशों की ) अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़े चरमान्त प्रदेश (मध्य के एक बड़े खण्ड की अपेक्षा) किनारे के ( चरम ) खण्ड अतिसूक्ष्म (छोटे) होने से यद्यपि द्रव्य से तो अधिक हैं। परन्तु प्रदेश तो मध्य के एक खण्ड में बहुत अधिक होते हैं। २. उनसे चरमान्त प्रदेश असंख्यात गुणा (मध्य का जो एक अचरम खण्ड है - वह चरम खण्डों के समूह की अपेक्षा से क्षेत्र से असंख्यात गुणा बड़ा होने से उसके प्रदेश भी असंख्यात गुणा अधिक हो जाते हैं ।) ३. उनसे चरमान्त अचरमान्त प्रदेश दोनों विशेषाधिक ( अचरमान्त प्रदेशों की राशि में चरमान्त प्रदेश राशि को भी शामिल कर देने से ) । द्रव्य - प्रदेशार्थ (शामिल) की अपेक्षा से (चरम अचरम द्रव्य प्रदेशों का ) अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़ा एक अचरम द्रव्य २. उनसे चरम द्रव्य असंख्यात गुणा ३. उनसे चरम अचरम- द्रव्य दोनों विशेषाधिक ४. उनसे चरमान्त प्रदेश असंख्यात गुणा ( किनारे के जो खण्ड हैं वे द्रव्य गिनती से असंख्यात) हैं। प्रत्येक खण्ड असंख्यात प्रदेशी एवं असंख्य प्रदेशावगाढ़ होने से चरमांत प्रदेश असंख्यात गुणा हो जाते हैं । ५. उनसे अचरमांत प्रदेश असंख्यात गुणा ६. उनसे चरमान्त अचरमान्त प्रदेश दोनों विशेषाधिक। इसी प्रकार 'अलोक' को छोड़कर शेष ३४ बोलों [ छह पृथ्वियाँ (रत्नप्रभा को छोड़कर), बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान, एक ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तथा लोक] की भी तीन-तीन अल्पबहुत्व कह देना चाहिये। अलोगस्स णं भंते! अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवे अलोगस्स दव्वट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखिज्ज गुणाई, अचरिम चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, पएसट्टयाए सव्वत्थोवा अलोगस्स चरिमंतपएसा, अचरिमंतपएसा अणंतगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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