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________________ चौथा स्थिति पद - देवों की स्थिति प्रश्न - हे भगवन् ! सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम की कही गई है। प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम देशोन पल्योपम की कही गई है। ____ इस प्रकार इस अभिलाप से औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक शेष भवनवासी देवों और देवियों के विषय में यावत् स्तनितकुमार तक नागकुमार देवों की तरह समझ लेना चाहिये। विवेचन - सूत्र नं. २२० से २२४ तक इन पांच सूत्रों में सामान्य देव और देवियों की तथा औधिक भवनवासी देव और देवियों की एवं असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक दस जाति के भवनवासी देव और देवियों की (पर्याप्तक और अपर्याप्तक सहित) जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। प्रश्न - भवनवासी देवों के कुल कितने भेद हैं ? और उनके क्या नाम है ? उत्तर - भवनवासी देवों के मुख्य दस भेद हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुपर्णकुमार (सुवर्णकुमार) ४. विद्युतकुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. वायुकुमार १०. स्तनितकुमार। इनकी स्थिति का वर्णन यहाँ कर दिया गया है। असुरकुमार जाति के अन्तर्गत पन्द्रह भेद और हैं। उनको परमाधार्मिक देव कहते हैं। ये पापाचरण और क्रूर परिणामों वाले होते हैं। ये तीसरी नरक तक जाकर नैरयिक जीवों को विविध प्रकार से दुःख देते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं - १. अम्ब २. अम्बरीष ३. श्याम ४. शबल. ५. रौद्र ६. महारौद्र ७. काल ८. महाकाल ९. असिपत्र १०. धनुः ११. कुम्भ १२. वालुका १३. वैतरणी १४. खरस्वर और १५. महाघोष। इनका वर्णन समवायांग सूत्र के पन्द्रहवें समवाय में है तथा विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र के तीसरे शतक के सातवें उद्देशक में है। पहले देवलोक का स्वामी शक्रेन्द्र है। उसके चार लोकपाल हैं यथा - १. सोम २. यम ३. वरुण और ४. वैश्रमण। ये परमाधार्मिक देव यमलोकपाल के अधीनस्थ देव हैं और पुत्रस्थानीय हैं। इनकी स्थिति एक पल्योपम की बतलाई गई है (वहाँ जघन्य उत्कृष्ट ऐसे दो भेद नहीं किये गए हैं किन्तु समुच्चय कथन है) इस प्रकार भवनवासी देवों के पच्चीस भेद होते हैं। अब आगे क्रमश: प्राप्त दण्डकों के अनुसार पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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