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________________ छठा व्युत्क्रांति पद - कुतो द्वार २१५ नहीं होते हैं क्योंकि स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में तीन विकलेन्द्रिय, तेउ, वायु और असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सभी को क्षुद्र.जीव (अगले भव में मोक्ष में जाने की अयोग्यता वाले) बताया गया है। किन्तु सिर्फ नैरयिक, तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। ___ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णं भंते! कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहितो उववजंति जाव देवेहितो उववजंति? - गोयमा! णेरइएहिंतो वि उववजंति, तिरिक्खजोणिएहितो वि उववजंति, मणुस्सेहितो वि उववजंति, देवेहितो वि उववजंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! वे नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच योनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न होते हैं और देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन-चारों गति के जीव मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों में आकर उत्पन्न हो सकते हैं। जइ णेरइएहिंतो उववज्जति किं रयणप्पभा पुढवी जेरइएहिंतो उववज्जति जाव अहेसत्तमा पुढवी जेरइएहिंतो उववज्जति? गोयमा! रयणप्पभा पुढवी जेरइएहिंतो वि उववनंति जाव अहेसत्तमा पुढवी णेरइएहितो वि उववजंति। .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन होते हैं? - उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं एगिदिएहिंतो उववजंति जाव पंचिंदिएहितो उववजंति? . गोयमा! एगिदिएहितो वि उववजंति जाव पंचिंदिएहितो वि उववति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव तिर्यंचयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं? For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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