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________________ छठा व्युत्क्रांति पद - कुतो द्वार १९३ भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववाइया, णवरं जोइसिय वेमाणिया णं चयणेणं अहिलावो कायव्वो॥ ४ दारं॥३०२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक एक समय में कितने उद्वर्तते हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक एक समय में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार जैसे उपपात के विषय में कहा उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरौपपातिक देवों तक की उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिषी और वैमानिक देवों के लिए च्यवन शब्द का प्रयोग करना चाहिए। सिर्फ मनुष्य गति से ही मनुष्य सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ जाकर आत्म स्वरूप में स्थित हो जाते हैं और वहाँ से वे वापिस नहीं लौटते हैं। इसलिये सिद्ध भगवन्तों में उपपात और उद्वर्तना दोनों नहीं कहने चाहिए। ॥चौथा द्वार समाप्त॥ पांचवां कुतो द्वार णेरइया णं भंते! कओहिंतो उववजंति? किं णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, मणुस्सेहिंतो उववजंति, देवेहितो उववजंति? गोयमा! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, मणुस्सेहितो उववज्जति, णो देवेहिंतो उववज्जति। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक कहाँ से आकर अर्थात् किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं ? तिर्यंच योनिकों में से उत्पन्न होते हैं ? मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं ? या देवों में से उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक, नैरयिकों में से उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यंच योनिकों में से उत्पन्न होते हैं मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं, किन्तु देवों में से उत्पन्न नहीं होते हैं। विवेचन - गतियाँ चार हैं यथा - नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देवगति। नरक गति और देवगति से निकलकर कोई भी जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होता है किन्तु तिर्यंच गति और मनुष्य गति से निकल कर जीव नरक में उत्पन्न हो सकता है। प्रश्न - मूल पाठ में 'णेरइया' शब्द दिया है इसकी व्युत्पत्ति और अर्थ क्या है? For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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