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________________ छठा व्युत्क्रांति पद एक समय द्वार पुढविकाइयाणं भंते! एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखिज्जा उववज्जंति, एवं जाव वाउकाइया । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव अनुसमय- प्रति समय अविरहित-बिना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यावत् वायुकायिक जीवों तक कह देना चाहिए। - Jain Education International - वणस्सइकाइया णं भंते! एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? गोयमा ! सट्टाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया अणंता उववज्जंति, परट्ठाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखिजा उववज्जंति । कठिन शब्दार्थ - अणुसमयं अनुसमय-प्रतिसमय, सट्टाणुववायं स्वस्थान में उपपात, परट्ठाणुववायं पर स्थान में उपपात, पडुच्च अपेक्षा से । भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! वनस्पतिकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? - उत्तर - हे गौतम! वनस्पतिकायिक जीव स्वस्थान में उपपात की अपेक्षा प्रतिसमय बिना विरह के अनन्त उत्पन्न होते हैं और परस्थान में उपपात की अपेक्षा प्रति समय बिना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। - १९१ - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में एक समय में जीवों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है । वनस्पति में स्व स्थान और परस्थान की अपेक्षा उपपात बताया है। यहाँ स्व स्थान का अर्थ वनस्पति भव है। जो वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होते हैं उनका उपपात स्वस्थान उपपात कहलाता है और जब पृथ्वीकाय आदि किसी अन्य काय में वनस्पतिकाय का जीव उत्पन्न होता है तब उसका उपपात परस्थान उपपात कहलाता है । स्वस्थान में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रतिसमय निरन्तर अनंत जीव उत्पन्न होते हैं। क्योंकि प्रत्येक निगोद का असंख्यातवां भाग निरन्तर उत्पन्न होता रहता है और मरण को भी प्राप्त होता रहता है और परस्थान में उपपात की अपेक्षा प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के जीव असंख्यात हैं। बेइंदिया णं भंते! एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? गोयमा ! जहणणेणं एगो वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखिज्जा वा असंखिज्जा वा । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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