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________________ १५२ ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ प्रज्ञापना सूत्र खंधस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, परसट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्णाइ चउ फासेहि य छट्टाणवडिए । एवं उक्कोस ठिइए वि । अजहण्णमणुक्कोस ठिइए वि एवं चेव, णवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए । - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्य स्थिति वाले संख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्याय अनन्त हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य स्थिति वाला संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले 'संख्यात प्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना क़ी अपेक्षा से द्विस्थानपंतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्णादि तथा चतुःस्पर्शो की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले संख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए। मध्यम स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है। जघन्य आदि स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी पुद्गलों के पर्याय जहण्णठिड्याणं असंखिज्जपएसियाणं पुग्गलाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता । - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्याय कितने कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्याय अनन्त कहे गये हैं । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णठिझ्याणं असंखिज्ज पएसियाणं पुग्गलाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? . Jain Education International गोयमा ! जहण्णठिइए असंखिज्ज पएसिए जहण्ण ठिइयस्स असंखिज्ज पएसियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पसट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्णाइ उवरिल्ल चउ फासेहिं च छट्टाणवडिए । एवं उक्कोस ठिइए वि । अजहण्णमणुक्कोस ठिइए वि एवं चेव, णवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए । भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्य स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्याय अनन्त हैं ? - ........................◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆00000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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