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________________ १२४ प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु श्रुत ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। ___इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्यों की पर्यायों के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा तीन ज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।. . . ___मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्यों की तरह ही कहना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित हैं तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं। इसी प्रकार जघन्य उत्कृष्ट मध्यम श्रुत ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में सारा पाठ कहना चाहिए। जहण्णोहिणाणीणं भंते! मणुस्साणं केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य अवधि ज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवधि ज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णोहिणाणीणं मणुस्साणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णोहिणाणी मणुस्से जहण्णोहिणाणीस्स मणुसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तिट्ठाणवडिए, ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्ण गंध रस फास पजवेहिं दोहिं णाणेहिं छट्ठाणवडिए ओहि णाण पजवेहिं तुल्ले मणपजवणाण पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए।' एवं उक्कोसोहिणाणी वि। अजहण्णामणुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव, णवरं ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जघन्य अवधि ज्ञानी मनुष्यों के अनन्त-पर्याय कहे गये हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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