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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्याय ११९ उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, णवरं ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ हीणे असंखिजइभागहीणे, अह अब्भहिए असंखिजइभागअब्भहिए। दो णाणा दो अण्णाणा दो दंसणा। अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, णवरं ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए, आइल्लेहिं चउहिं णाणेहिं छट्ठाणवडिए, केवलणाण पनवेहि तुल्ले, तिहिं अण्णाणेहिं, तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए केवलदसण पज्जवेहिं तुल्ले। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण कहते हैं कि 'जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?' उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है तथा अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से एवं तीन ज्ञान, दो अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। - उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष .. यह है कि स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो असंख्यात भाग हीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यात भाग अधिक होता है। उनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन होते हैं। . ___ अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले मनुष्यों का पर्याय-विषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। विशेष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा आदि के चार ज्ञानों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है, केवल ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है तथा तीन अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्य के पर्यायों की विविध अपेक्षाओं से प्ररूपणा की गई है। जघन्य-अवगाहना युक्त मनुष्य स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित - जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य नियम से संख्यात वर्ष की आयु वाला ही होता है, इस दृष्टि से वह त्रिस्थानपतित हीनाधिक ही होता है, अर्थात् वह असंख्यात भाग और संख्यात भाग एवं संख्यात गुण हीनाधिक ही होता है। जघन्य-अवगाहना युक्त मनुष्यों में तीन ज्ञानों और दो अज्ञानों की प्ररूपणा - किसी तीर्थंकर का अथवा अनुत्तरौपपातिक देव का अप्रतिपाती अवधिज्ञान के साथ जघन्य अवगाहना में उत्पाद होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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