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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के पर्याय ११७ जहण्णोहिणाणीणं भंते! पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं केवइय पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णोहिणाणीणं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णोहिणाणी पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए जहण्णोहिणाणिस्स पंचिंदिय तिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिढाणवडिए, वण्ण गंध रस फास पजवेहिं आभिणिबोहियणाणसुयणाण पजवेहिं छट्ठाणवडिए, ओहिणाणपजवेहिं तुल्ले। अण्णाणा णत्थि। चक्खुदंसण पजवेहिं अचक्खुदंसणपजवेहिं ओहिदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसोहिणाणी वि। . ___ अजहण्णुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव, णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। जहा आभिणिबोहियणाणी तहा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य, जहा ओहिणाणी तहा विभंगणाणी वि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी य जहा आभिणिबोहियणाणी, ओहिदसणी जहा ओहिणाणी, जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि, जत्थ दंसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि अस्थि त्ति भाणियव्वं ॥२६४॥ . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि 'जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?' उत्तरं - हे गौतम! एक जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, दूसरे जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, किन्तु अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों और आभिनिबोधिक ज्ञान तथा श्रुत ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। इसमें अज्ञान नहीं कहना चाहिए। चक्षुदर्शन-पर्यायों और अचक्षुदर्शन-पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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