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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के पर्याय ११५ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि "जघन्य गुण काला पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनन्त पर्याय हैं ?" उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य गुण काला पंचेन्द्रिय तिर्यंच, दूसरे जघन्य गुण काले पंचेन्द्रिय तिर्यंच से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, शेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट गुण काले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए। अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि वे स्वस्थान काले गुण पर्याय में भी षट्स्थानपतित हैं। ____ इसी प्रकार पांचों वर्गों, दो गन्धों, पांच रसों और आठ स्पर्शों से युक्त तिर्यंच पंचेन्द्रियों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए। जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते! पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं? . ___उत्तर - हे गौतम! जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णाभिणिबोहियणाणी पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स पंचिंदिय तिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए वण्ण गंध रस फास पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, आभिणिबोहियणाणपजवेहिं तुल्ले, सुयणाणपजवेहिं छट्ठाणवडिए, चक्खुदंसणपजवेहिं छट्ठाणवडिए, अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि, णवरं ठिईए तिट्ठाणवडिए, तिण्णि णाणा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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