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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले पृथ्वीकायिकों के पर्याय १०१ गोयमा! जहण्णोगाहणए असुरकुमारे जहण्णोगाहणस्स असुरकुमारस्स दव्वट्ठयाए तुले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णाईहिं छट्ठाणवडिए, आभिणिबोहियणाण पजवेहिं सुयणाण पजवेहिं ओहिणाण पनवेहिं, तिहिं अण्णाणेहिं, तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसोगाहणए वि। एवं अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि णवरं उक्कोसोगाहणए वि असुरकुमारे ठिइए चउट्ठाणवडिए (सेसं जहाणेरइयाणं) एवं जाव थणियकुमारा॥२६१॥ प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! एक जंघन्य अवगाहना वाला असुरकुमार, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमार से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से भी तुल्य है किन्तु स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्ण आदि की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान के पर्यायों, तीन अज्ञानों तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। - इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले असुरकुमारों के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। तथा इसी प्रकार मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) अवगाहना वाले असुरकुमारों के पर्यायों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। विशेष यह है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले असुरकुमार भी स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है। शेष पूरा वर्णन नैरयिकों के समान समझना चाहिये। ___ असुरकुमारों के पर्यायों की वक्तव्यता की तरह ही यावत् स्तनितकुमारों तक के पर्यायों की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना वाले दश प्रकार के भवनपतियों के अनन्त पर्यायों का निरूपण किया गया है। जघन्य आदि अवगाहना वाले पृथ्वीकायिकों के पर्याय जहण्णोगाहणगाणं भंते! पुढविकाइयाणं केवइया पजवा पण्णता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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