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________________ ९२ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - वाणव्यन्तरों की स्थिति जघन्य १० हजार वर्ष की, उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है, अतः वह भी चतुःस्थानपतित हो सकती है, किन्तु ज्योतिष्कों और वैमानिकों की स्थिति में त्रिस्थान पतित हीनाधिकता ही होती है, क्योंकि ज्योतिष्कों की स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम की है। अतएव उनमें असंख्यात गुणी हानि-वृद्धि संभव नहीं है। वैमानिकों की स्थिति जघन्य पल्योपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। एक सागरोपम दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम का होता है। अतएव वैमानिकों में भी असंख्यात गुणी हानि वृद्धि संभव नहीं है। इसी कारण ज्योतिष्क और वैमानिकदेव स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हीनाधिक ही होते हैं। . . . जघन्य आदि अवगाहना वाले नैरयिकों के पर्याय जहण्णोगाहणगाणं भंते! णेरइयाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? . . गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णोगाहणगाणं णेरइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णोगाहणए णेरइए जहण्णोगाहणस्स णेरड्यस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रस-फास पजवेहिं तिहिं णाणेहिं, तिहिं अण्णाणेहिं, तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिए। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला नैरयिक, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से भी तुल्य है किन्तु स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थान पतित है और वर्ण गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। उक्कोसोगाहणगाणं भंते! णेरइयाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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