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________________ ५२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन आदि से वस्तु तत्व को समझा देते हैं; किन्तु जिज्ञासु से वह आग्रह नहीं करते कि वह उनकी बातों को स्वीकार कर ही ले । स्वीकार करना अथवा न करना, वे उस जिज्ञासु के विवेक पर छोड़ देते हैं । इसीलिए भगवान महावीर ने एक सूत्र दिया पन्ना समक्खिए धम्म । अपनी प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करो। धर्म को समझने के बाद जब कोई उसे स्वीकार करने के लिए भ० महावीर से पूछता है तो वे एक ही उत्तर देते हैं -- अहासुहं देवाणुप्पिया ! देवानुप्रिय, तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो। धार्मिक जगत में अनाग्रह की यह नीति जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही लौकिक जगत में भी है। आग्रह से व्यक्ति दवाब का अनुभव करता है, वह समझता है कि उसे अनुचित दबाया जा रहा है फिर उसके मन में इस क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, विरोधी भाव उत्पन्न होते हैं, विग्रह के बीज पड़ते हैं, परस्पर मन-मुटाव होता है। धोरे-धीरे बढ़कर यह परिवार और समाज में विशृंखलता उत्पन्न करता है। आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, भाई-भाई में विरोध हो रहा है, इस सबके मूल में आग्रह ही है । __ और यदि आग्रह हठाग्रह अथवा कदाग्रह बन जाए तब तो स्थिति और भी विषम हो जाती है। आज संसार के सभी औद्योगिक देश दवाब समूहों (pressure groups) से संत्रस्त हैं। ये समूह अनुचित रूप से घोर आग्रहपूर्ण ढंग से दवाब द्वारा अपने हक माँगते (arrogation) हैं। उनकी यह नीति दुर्नीति है। यदि आज संसार भ० महावीर की अनाग्रह की नीति अपना ले तो संसार में सुख-शांति की सरिता बहने लगे। अनेकांत नीति अनेकांत किसी भी वस्तु को सभी दृष्टिकोणों से जानने की, विचार करने की नीति है । बहुत-से लोग केवल अपने ही दृष्टिकोण से किसी घटना, तथ्य या वस्तु को देखते हैं और दूसरे के दृष्टिकोण की अवहेलना कर देते हैं । इसका परिणाम पारस्परिक विद्वष के रूप में आता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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