SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन 'हाकार' और 'माकार' दोनों दण्डनीतियों से काम लिया। यह व्यवस्था उसके पुत्र अभिचन्द्र के समय तक सुचारु रूप से चलती रही। (३) धिक्कार नीति–अपराध क्रमशः बढ़ते जा रहे थे । अतः पाँचवें कुलकर प्रसेनजित ने इस नीति का प्रचलन किया !' अपराधी व्यक्ति से कहा जाता-धिक्कार है, तुमने ऐसा कार्य किया। यह नीति छठे कुलकर मरुदेव और सातवें कुलकर नाभिराय तक सफलतापूर्वक चलती रही । इसका कारण यह था कि इस युग के मानव का स्वभाव सरल और कोमल था । उसके लिए धिक्कार शब्द ही काफी था। ___ आधुनिक शब्दावली में हाकार को 'खेद', माकार को 'निषेध' और धिक्कार को 'तिरस्कार' नीति कहा जा सकता है। जैन दृष्टि से यह नीति का प्रारम्भ है, जो समाज की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए उस भोग युग की अन्तिम बेला में तीसरे आरे के अन्तिम चरण में, इस युग के मेधावी पुरुषों-कुलकरों द्वारा मानव समाज पर लागू की गई थी। इसके उपरान्त विश्व के रंगमंच पर प्रथम कुशल प्रशासक और नीति तथा धर्म-प्रवर्तक ऋषभदेव का प्रादुर्भाव हुआ । आप प्रथम तीर्थंकर, प्रथम केवली और प्रथम राजा थे। आपके समय से कर्मयुग का प्रारम्भ हुआ । कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान और असि, मषि, कृषि आदि का प्रारंभ आपने ही किया। मानव को कर्म करने की--आजीविका उपार्जन करने की शिक्षा दी। समाज व्यवस्था, राज-व्यवस्था आदि सभी का सूत्रपात आपने किया । राजनीति, न्याय, दण्डनीति आदि के सिद्धान्त सर्वप्रथम आपने ही निश्चित किये। __हाकार, माकार, धिक्कार के अतिरिक्त आपने चार दण्ड नीतियाँ और निर्धारित की (१) परिभाष-कुछ समय के लिए अपराधी को आक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने का दण्ड देना। १ त्रिषिष्ट शलाका पुरुष चरित्र १।२।१७६-१७६ २ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार, सूत्र १४ ३ युद्ध विद्या ४ लेखन कला ५ कर्म-नीति, समाज संचालन और राजनीति आदि के निर्धारण के सम्बन्ध में वैदिक परम्परा में जो स्थान प्रथम मनु का है, लगभग वही स्वरूप जैन परम्परा में 'ऋषभदेव' का माना गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy