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________________ ४७२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन प्रेम जब तक स्थिर रहता है, तब तक अमृत है। जब वह स्थिर नहीं रहता, चलित हो जाता है, तब विष से भी अधिक भयानक बन जाता है। ब्रह्मचर्य जो देइ कणय कोडि अहवा कारेइ कणयजिणभवणं । तस्स न तत्तिय पुन्न, जत्तिय बंभव्वए धरिए । –संबोध सत्तरि ५६ यदि कोई व्यक्ति करोड़ों रुपयों के मूल्य का स्वर्ण याचकों को दान देता है अथवा स्वर्णमय जिनमंदिर का निर्माण कराता है, उसे उतना पुण्य नहीं होता, जितना ब्रह्मचर्य का पालन करने से होता है। भाग्य गुणहिं न संपइ कित्ति पर फललिहिआ भुंजन्ति । केसरि न लहइ बोड्डिअ विगय लक्खेहिं घेप्पन्ति ।। -प्राकृत व्याकरण ४/३३५ गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, सम्पत्ति नहीं। प्राणी भाग्य में लिखे फल को भोगते हैं । सिंह गुणसम्पन्न होने पर भी एक कौड़ी में भी नहीं बिकता जबकि हाथी लाखों (रुपयों) में खरीदा जाता है । भाव मणि मंत ओसहीणं, देवाणं तह य जंत तंताणं । भावेण विणा सिद्धि, न ह दीसइ कस्स अवि लोए । -भावकुलक ३ जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनके मूल में भाव (भावना) होती है। जल के बिना पौधे सूख जाते हैं उसी तरह भाव के बिना सभी अनुष्ठान विफल हो जाते हैं । मणि (विविध प्रकार के रत्नों का प्रयोग), मन्त्र, औषध, देव, यन्त्र और तन्त्र का कोई भी अनुष्ठान सफल नहीं हो पाता। मद्यपान मज्जेव णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि जिंदणिज्जाइं । इहलोए परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ।। -वसुनंदि श्रावकाचार ७० मद्यपान से मानव मदहोश होकर निन्दनीय कार्य करता है, फलस्वरूप उसे इस लोक और परलोक में अनन्त दुख भोगने पड़ते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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