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________________ नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता । ४२५ काणे को काणा कहना भी अभद्रता है। इसीलिए इस पराकाष्ठा तक सत्य का पालन अव्यवहार्य है। नीति में भी कहा गया है-अति सर्वत्र वर्जयेत् । एक चिन्तक ने भी कहा है-सद्गुण सीमा का उल्लंघन करने के उपरान्त दुर्गुण बन जाते हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने सत्य के विषय में कहा है सच्चं च हियं च मियं च गाहणं । (सत्य हितकारी, मित-अल्प शब्दों वाला और श्रोता द्वारा ग्रहण करने योग्य होना चाहिए ।) यह भगवान महावीर की सापेक्ष (समाज सापेक्ष तथा व्यवहार सापेक्ष) दृष्टि थी। एक वैदिक नीतिकार ने भी सत्य का यही रूप बताया सत्यं ब्रू यात प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं (सत्य बोलो, प्रिय बोलो, किन्तु अप्रिय सत्य मत बोलो।) यद्यपि जैन नीति व्यवहार-पक्ष पर सापेक्षता को मान्यता देती है किन्तु यह सापेक्षता सर्वथा निरंकुश और सर्वतंत्र-स्वतंत्र नहीं है, इसमें निरपेक्षता का सूत्र अनुस्यूत है। यह सत्य है कि सापेक्षता नैतिक नियमों में शिथिलता की प्रवृत्ति उत्पन्न करती है इसीलिए जैन नीतिमान्य सापेक्षता निरपेक्षता के आश्रित है । निरपेक्ष आधारित सापेक्षता ही नैतिक बन पाती है। अधिकांश स्थितियों में व्यक्ति अपने स्वयं के लिए नैतिक निरपेक्षता के आधार पर निर्णय कर सकता है । यथा-वह अनशन करना चाहता है तो वह बिना किसी अन्य बात का-व्यावहारिक परिस्थितियों का विचार किये अनशन कर सकता है । इसी प्रकार हिंसा आदि पापों से निवृत्ति कर सकता है। लेकिन अन्य लोगों को किसी व्रत या नियम का पालन कराने में अथवा उन्हें ऐसी प्रेरणा देने में उसे सापेक्ष दृष्टि रखना आवश्यक है, सापेक्षता के बिना उसका सफल होना कम संभव है। १. दशवैकालिक, अध्ययन ७ । २. प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार, अध्ययन २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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