SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार-कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४११ स्वार्थभरी समझ एवं वासना, आवेग-संवेग आदि हैं। यदि नैतिक अन्तर्दृष्टि (Moral intuition) से विचार किया जाय तो व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य स्पष्ट प्रतिभासित होगा। __ कर्तव्य-निर्धारण के लिए जैन नीति ने स्याद्वाद का सिद्धान्त दिया है । इसमें मुख्य और गौण की कल्पना है। जिस स्थिति में जो कर्तव्य प्रमुख हो उसी का पालन करना चाहिए। जैसे बच्चे को गलती पर समझानाबुझाना और ताड़ना देना पिता का प्रमुख कर्तव्य है, उस समय उस पर लाड़-प्यार नहीं करना चाहिए। इसी को मैथिलीशरण गुप्त ने इन शब्दों में कहा है"न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।" अतः कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण के अवसर पर आत्म-स्वातंत्र्य के सर्वोच्च नैतिक नियम का आश्रय लेकर ऋतंभरा प्रज्ञा द्वारा निर्णय करना चाहिए। कर्तव्यों का वर्गीकरण (Classification of Duties) काण्ट ने कर्तव्य का वर्गीकरण दो भेदों में किया-(१) पूर्णबोध्यतामूलक (Perfect obligation) और अपूर्णबाध्यतामूलक (Jmperfect obligation). पूर्णबाध्यता मूलक कर्तव्यों में वह चोरी न करना, किसी व्यक्ति की हत्या न करना आदि कार्यों की गणना करता है। और परोपकार, समाज, देश, व्यक्ति की सेवा आदि को वह अपूर्णबाध्यतामूलक कर्तव्य मानता है। वस्तुतः पूर्ण बाध्यतामूलक कर्तव्य वे हैं, जिनको अवश्य ही करना पड़ता है, इनका उल्लंघन करने पर समाज अथवा राज्य दण्ड देता है और अपूर्णबाध्यतामूलक कर्तव्यों को व्यक्ति से स्वेच्छापूर्वक करता है। काण्ट के इस वर्गीकरण से यह धारणा प्रतिफलित होती है कि पूर्णबाध्यतामूलक कर्तव्य कानूनी (legal) हैं और अपूर्णबाध्यतामूलक कर्तव्य नैतिक (moral) हैं। जबकि नैतिकता इन दोनों को स्वीकार नहीं करती, क्योंकि नीति में दण्ड अथवा भय को कोई स्थान नहीं है । नैतिक व्यक्ति का सत्य बोलना, हिंसा न करना, परोपकार, सेवा आदि जितने भी कार्य अथवा कर्त्तव्य हैं, वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy