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________________ २ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन चेतनाशील प्राणियों में भी मानव ही सर्वश्रेष्ठ है । उसी के मस्तिष्क में शुभ (good) और अशुभ (bad) अथवा उचित (right) और अनुचित (wrong) के विकल्प आते हैं। नीति (ethics), नैतिकता (morality), आचार (conduct) आदि सभी बातें मानव के लिए हैं और आचार्य ने अपने शब्दों में सिर्फ एक गाथा में समस्त नीतिशास्त्र का मूल आधार (fundamental tase), सिद्धान्त (principle) और केन्द्र बिन्दु (central crbit) दे दिया है। . शुभत्व (goodness) और अशुभत्व (badness) आदि के बारे में मानव की जिज्ञासा सदा रही है। यह जिज्ञासा सार्वदेशीय और सार्वकालीन है। महापुरुषों, धर्म-प्रवर्तकों, साधु-सन्तों और मनीषी विद्वानों के समक्ष वह समाधान पाने की इच्छा से ऐसी जिज्ञासा रखता रहा है। उत्तर काल में एक जिज्ञासू ने मनीषी विद्वान के समक्ष यही जिज्ञासा प्रकट की तो उसे भी यही समाधान मिला ___ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् जो तुम्हारी आत्मा को प्रतिकूल हो, तुम्हें अच्छा न लगे; वैसा आचरण किसी अन्य के साथ मत करो। वस्तुतः आचरण अथवा मानवीय क्रिया-कलाप नीति से ही संबंधित हैं और मानव का आचरण ही नीतिपूर्ण अथवा अनीतिपूर्ण होता है। जिस आचरण से स्वयं अपना और साथ ही दूसरे का हित हो, वह नीतिपूर्ण है, शुभ है। Thou shalt not hurt your neighbour, (तुम अपने पड़ोसियों (किसी भी व्यक्ति) को दुःख न दो।) ईसामसीह के इन शब्दों में भी व्यक्तिपरक और समाजपरक नीति का स्पष्ट सन्देश है। मानव की मननशीलता इस सार्वकालीन और सार्वजनीन जिज्ञासा का एक मात्र कारण यह है कि मानव सिर्फ सामाजिक प्राणी (social animal) ही नहीं है जैसाकि यूनानी विचारक अरस्तू ने बताया है; अपितु सत्य तथ्य यह है कि वह विवेकशील और विकसित प्रज्ञा का स्वामी है। मानव का जीवन केवल मूल प्रवृत्तियों (instincts) द्वारा ही संचा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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