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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव | २१६
वचन द्वारा उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान गुणों का उत्कीर्तन अथवा स्तुति है । संस्तव का एक अर्थ परिचय भी है | 2
इन दोनों अतिचारों का अभिप्राय है - परपाखंडियों की न प्रशंसा करनी योग्य है और न उनका अति परिचय ही करना चाहिए ।
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का अनैतिकत्व तो सम्यक्त्व के प्रथम तीन अंगों के सन्दर्भ में बताया जा चुका है । मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा, तथा अतिपरिचय भी अनैतिक ही है ।
अयथार्थ दृष्टिकोण ही मिथ्यादृष्टि है । जिन व्यक्तियों का दृष्टिकोण जीवन, समाज तथा कर्तव्याकर्तव्य के बारे में यथार्थ नहीं होता, जो समाज एवं देश-काल की परिस्थितियों का यथार्थ मूल्यांकन नहीं कर पाते, अपने स्वार्थ को ही प्रधान मानते हैं, ऐसे व्यक्ति चाहे धर्म के, समाज के, राज्य के कितने भी उच्च पदों पर आसीन क्यों न हों, उनकी प्रशंसा करने का परिणाम घातक ही होता है, आतंक, संघर्ष, विप्लव, हिंसा जैसी घोर अनैतिकताओं को ही जन्म देता है । यह प्रत्यक्ष सिद्ध है ।
इसी प्रकार अयथार्थ दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों का अति-परिचय भी हानिकारक होता है । नीति का ही एक वाक्य है - संसर्गजाः दोष गुणा भवन्ति संसर्ग अथवा संगति से गुण भी दोष बन जाते हैं । फल यह होता है कि यथार्थदृष्टि वाले मानवों की उचित दृष्टि भी संगति के दोष से प्रभावित "होकर मलिन हो जाती है ।
उपसंहार
जैन विचारणा में सम्यक्त्व को चिन्तामणि रत्न से भी अधिक मूल्य - वान कहा गया है । यह आत्मा की ज्योति है, आत्म-ज्योति को प्रगट करने वाला है, आत्मशक्तिको अभिव्यक्ति प्रदान करता है, समता की मुद्रा है, भव-परम्परा का उच्छेद करता है । इसका सबसे बड़ा गुण है | मानसिक तथा भावनात्मक अन्धकार को विनष्ट करके सद् ज्ञान का आलोक
जगाना |
१ मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, विद्यमानामविद्यमानां मिथ्यादृष्टि गुणानां वचनेन प्रकटन संस्तव उच्यते ।
- तत्वार्थ सूत्र श्रुत सागरीया वृत्ति ७ / २३
२ तैमिथ्यादृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परान्नपानादि जनित: परिचयः संस्तवः ।
- योगशास्त्र २ / १७ वृत्ति, पत्र ६७
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