________________
१५० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
वास्तव में, जैसा डीवी ने कहा है-नीतिशास्त्र आचरण का विज्ञान है। मानव जो कुछ भी क्रिया-कलाप अथवा आचरण करता है, चाहे व्यक्तिगत सन्दर्भ में अथवा सामाजिक व्यवहार के रूप में, यदि वह जन-जीवन के रीति-रिवाजों के अनुकूल हुआ तो उसे सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है, और उस आचरण को नैतिक मान लिया जाता है।
नैतिक आचरण का तात्पर्य सामाजिक मानदण्डों के अनुकूल आचरण है। यही बात 'निषिद्ध देशकाल चर्या का त्याग' इन शब्दों द्वारा आचार्य हेमचन्द्र ने कही है।
अरबन ने कहा है-वस्तुतः नैतिकता की मान्यताएं, वे सत्य हैं, जिनके सहारे मानव अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और यदि कहीं ये मान्यताएँ (सत्य) मानव द्वारा भ्रम और भूल में परिणत हो जायँ (अथवा हम इन सत्यों के विषय में भ्रमित हो जायँ) तो हमारा जीवन ही, सही अर्थों में जीवन न रहे (हमारे जीवन की गतिविधियां और क्रिया-कलाप ही अव्यवस्थित हो जायें।
इससे स्पष्ट है कि नैतिक मान्यताओं का जीवन में बहुत महत्व है । इन्हें अभ्युपगम (postulate) भी कहा जाता है।
अभ्युपगम अथवा नैतिक मान्यताओं के विषय में यह ज्ञातव्य है कि ये किसी भी समाज में बहुत पहले से प्रवर्तमान होती हैं। इनका उद्गम खोजना सरल नहीं है। ये समाज द्वारा स्वीकृत रीतियां, परम्पराएं, विश्वास और धारणाएं हैं; उदाहरण के लिए उत्तराध्ययन में कहा गया है
. (आत्मा) ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से इन पर श्रद्धा करता है, चारित्र से (नवीन कर्मों के आश्रव का) निरोध करता है और तप से परिशुद्ध (पूर्व संचित कर्मों का क्षय) होता है ।
१. हेमचन्द्राचार्य : योगशास्त्र, प्रकाश १, श्लोक ५४ २ These (Postulates of Morality) are, in very truth, 'the truths
men live-by' and for these truths to turn into error and illusion in our hands, is in a very real sense for us to cease to live.
-Urban : Fundamentals of Ethics, p. 357 ३. नाणेण जाणइ भावे, सणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २८/३५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org