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________________ १२० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन श्रमणों में उत्कृष्टाचारी धन्ना अणगार वैश्य कुल की शोभा थे । मेघकुमार, अभयकुमार आदि क्षत्रिय वंश के दीपक थे तो हरिकेशबल चांडाल कुल में उत्पन्न होकर भी सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए। यहां तक कि अनार्य देश में उत्पन्न आर्द्र कुमार मुनि ने भी मुक्ति प्राप्त की । इससे स्पष्ट है कि वर्णों के अनुसार मानव-मानव में भेद जैन धर्म को स्वीकार नहीं है । फिर भी भगवान महावीर ने कर्म के अनुसार वर्णों के नामकरण के सिद्धान्त को अपने प्रवचन में स्थान दिया - कर्म के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं । यद्यपि आगमिक युग में जैन विचारणा वर्ण और जाति व्यवस्था को नकारती है, किन्तु ईसा की ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के आचार्य श्री जिनसेन और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र ने वर्णों और जातियों की उत्पत्ति भगवान ऋषभदेव द्वारा मानी है । कई ग्रन्थों में इस आशय के उल्लेख प्राप्त होते हैं । भगवान ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - इन तीन वर्णों की स्थापना की ।" यह वर्णन आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी मिलता है तथा अन्य ग्रन्थों' भी प्राप्त होता है । किन्तु यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भगवान ने इन वर्णों तथा जातियों की स्थापना कर्मानुसार और आजीविका के साधनों (पेशा ) की दृष्टि से की थी, इनमें ऊँच-नीच की कोई भावना नहीं थी । साथ ही १ कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओं । इस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवाइ कम्मुणा || - उत्तराध्ययन सूत्र २५/३३ २ देखिए, ऋषभदेव : एक परिशीलन --श्री देवेन्द्र मुनि ३ उत्पादितास्त्रयोवर्णाः तदा नादवेधसा | क्षत्रियाः वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥ - महापुराण १८३ / ९६/२६२ ४ (क) कल्पलता : समयसुन्दर गणी, पृ० १६६ (ख) पउमचरियं : विमलसूरि उ०३ / १११ - ११६ (ग) पश्चाच्चतुर्वर्णस्थापनं कृतम् । Jain Education International - कल्पद्रुमकलिका०, लक्ष्मी०, पृ० १४४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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