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नीतिशास्त्र के विवेच्य विषय | ६७
उद्गम विकास आदि पर गम्भीर विवेचन करता है । वह तो इसी आधार पर नीतिशास्त्र की सम्भाव्यता भी स्वीकार करता है।
भगवान महावीर ने कहा है
प्रत्येक व्यक्ति को नित्य प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम यह विचार करना चाहिए-मैंने क्या कर्त्तव्य किया है और क्या नहीं किया और क्या करना शेष है ? ऐसा कौन-सा कर्तव्य है, जिसे मैं कर तो सकता हूँ, मेरे लिए सम्भव है, किन्तु उस कर्त्तव्य का मैं पालन नहीं कर रहा हूँ। अपने आपसे इस प्रकार के प्रश्न करके व्यक्ति को स्वयं अपने कर्तव्य पथकरणीय कर्तव्यों को स्पष्ट करके उनका आचरण करना चाहिए।
__ कर्तव्य पथ को स्पष्ट करते समय तथा करणीय कर्तव्यों का निर्धारण करते समय कर्त्तव्य एवं अकर्तव्य, करणीय तथा अकरणीय का निर्णय करना आवश्यक है। इस निर्णय के लिए विधि-निषेध के मानदण्ड भी निश्चित करने अनिवार्य हैं। साथ ही कर्त्तव्य के हेतु एवं साधन भी निश्चित करने पड़ेंगे और फिर फलाफल पर भी विचार करना पड़ेगा।
__ कर्त्तव्य सम्बन्धी यह सम्पूर्ण विवेचन नीतिशास्त्र का विषय है। इसीलिए नीतिशास्त्र को कर्तव्य का शास्त्र भी कहा गया है।
श्रेय का विवेचन न्याय, व्यक्ति मात्र का अधिकार है और इस अधिकार का आधार है कर्तव्य । कर्तव्य करने वाले को ही अधिकार प्राप्त होता है। इस दृष्टि से अधिकार-न्याय की अपेक्षा कर्त्तव्य बड़ा है और कर्तव्य से भी आगे हैश्रेय।
न्यायपूर्ण आचरण क्यों किया जाय? कर्तव्यों का पालन किसलिए करना चाहिए ? इन जैसे सभी प्रश्नों का उत्तर है-श्रेय; श्रेय प्राप्ति के लिए।
प्लेटो ने कहा है-न्याय और कर्तव्य पालन से समाज का हित या श्रेय होता है, इसलिए न्याय और कर्तव्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
? Such a philosophy must be possible is evident from the common idea of duty and of the moral laws.
- Kant's Selection, Scribner's series. p. 268 २. से पुव्वरत्तावररत्त काले संपिक्खए अप्पगमप्पएणं । किं मे कडं किच्चमकिच्च सेसं किं सक्कणिज्जं न समायरामि ।
-दशवकालिक चूलिका २/१२
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