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-सारांश यह है कि चन्द्र स्वर स्थिर कार्य के लिए उत्तम है तथा सूर्य स्वर पर कार्य के लिये अति उत्तम है-२१४ .
सुखमना स्वर में कार्य विचार दोहा-सुखमन चलत न कीजिये, चर थिर, कारज कोय ।
करत काम सुखमन विषय, अवस हानि कछु होय ॥ २१५ ॥ भवन प्रतिष्ठादिक सहु, वरजित सुखमन मांहि । .. ग्रामान्तर जावा तणो, पगला भरिये नांहि ॥ २१६ ॥ दु:ख दोहग पीड़ा लहे, चित में रहे क्लेश । . . चिदानन्द सुखमन चलत, जो को जाय विदेश ॥ २१७ ॥ कारज की हानि होवे, अथवा लागे वार । अथवा मित्र मिले नहीं, सुखमन भाव विचार ॥ २१८ ॥ श्वास शीघ्र अति पालटे, छिन चन्द्र छिन सूर । ते सुखमन सुर जानिये, नाम अनिल भरपूर ।। २१६ ॥ सुखमन सुर संचार में, कीजे आतम ध्यान । रुद्ध गति एहि नाक की, लहिये अनुभव ज्ञान ॥ २२० ॥ आतम तत्त्व विचारणा, उदासीनता भाव । भावत सुर सुखमन विषय, होवे ध्यान जमाव ।। २२१ ॥ चर थिर तीजी यह कही, द्विस्वभाव की बात ।
इन अनुक्रम थी आरंभी, कारज सफल कहात ॥ २२२ ॥ अर्थ-जब सुखमन स्वर चलता हो तब चर तथा स्थिर कोई भी कार्य न करें। क्योंकि सुखमन स्वर में कार्य करने से अवश्य हानि होती है-२१५
मकान, मंदिर आदि की प्रतिष्ठा इत्यादि कार्य सुखमन स्वर में नहीं करने चाहियें और न ही ग्रामान्तर (परदेश) जाना चाहिये-२१६
सूखमन स्वर में जो कोई विदेश जायेगा वह दुःख, दुर्भाग्य, कष्ट, और पीड़ा पायेगा तथा उसके चित्त में क्लेश ही बना रहेगा–२१७ ४५-सुखमना नाड़ी से श्वास चलते समय किसी को भी शाप अथवा वरदान
देने से वह सफल होता है।
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