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________________ Raftaar at reपज्ञान भी सन्मार्ग दर्शक होता है । स्थिर कार्य के लिए अच्छे होते हैं परन्तु चर कार्यों के लिये होते - १६७ (४) वायु तत्त्व, अग्नि तत्त्व, आकाश तत्त्व ये तीनों यदि सूर्य स्वर में हों तो चर कार्य के लिये अच्छे होते हैं किन्तु चन्द्र स्वर में अशुभ फलदाता हैं—१६८ पांच तत्त्वों में रोगी सम्बन्धी प्रश्नों का विचार (दोहा) — रोगी केरो प्रश्न नर, जो कोउ पूछे आय । ताकुं स्वास विचार के, इम उत्तर कहवाय ॥१६६॥ शशि सुर में धरणी चलत, पूछे तिस दिसि मांहि । ताते निचे करि कहो, रोगी विरणसे नांहि ॥ १७० ॥ चन्द्र बन्द सूरज चलत, पूछे डाबी प्रोड़ | रोगी के परसंग तो, जीवे नहि विधि कोड़ || १७१॥ पूरण स्वर सुं आय के, पूछे खाली मांहि । तो रोगी कुं जाणजो, खाली सुर सुं आयके, जोको रोगी की कहे, तो तस नांहिज अर्थ – यदि कोई नर रोगी सम्बन्धी प्रश्न आपके पास आकर पूछे तो अपने स्वर का विचार कर निम्न प्रकार से उत्तर दें – १६६ नांहि ॥ १७२ ॥ साता होवे बहते सुर में बात । घात ।।१७३ || (१) यदि कोई पुरुष आकर रोगी सम्बन्धी प्रश्न करे उस समय यदि आपके चन्द्र स्वर में पृथ्वी तत्त्व चल रहा हो और प्रश्न कर्त्ता भी उस भरे" स्वर की ३८ - ज्ञातुर्नाम प्रथमं पश्चाद्यद्यातुरस्य गृह, गाति । स्याद्वपर्यस्ता ||४८ ॥ दूतस्तदेष्ट- सिद्धिस्तद्वयस्ते (ज्ञानांर्णवे) अर्थ — कोई प्रश्नकर्त्ता दूत यदि प्रथम ही ज्ञाता का नाम लेकर तत्पश्चात् आतुर ( रोगी) का नाम ले तो इष्ट की सिद्धि होती है और इसके विपरीत रोगी का नाम पहले और ज्ञाता का पीछे ले तो इष्ट की सिद्धि नहीं होती ( विपर्यस्त है ) ३९ - जिधर का स्वर चलता हो उस दिशा को पूर्ण अथवा भरी दिशा कहते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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