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________________ RATHI निरपेक्ष त्याग विमा चित्त शुद्धि नहीं होती। न करने का पात्र है-८५ ।। व्यवहार ध्यान का प्रभाव . (चौपाई) ध्यान अभ्यास थी जो नर होय । ताकुं दुःख उपजे नवि कोय । इन्द्रादिक पूजे तस पाय । ऋद्धि, सिद्धि प्रगटे घंट प्राय ।। ८६ ।। पुष्प-माल' सम विषधर तास । मृगपति मृगसम होवे जास ॥ पावक होय पानी तत्काल । सुरभि सुत सदृश्य जस व्याल ॥ ८७ ।। सायर गोपद नी परे होय । अटवी विकट नगर सम जोय ॥ रिपु लहे मित्राई भाव । शस्त्र तणो नवि लागे घाव ।। ८८ ।। कमलपत्र करवाल बखानों । हलाहल अमृत करि जानो ।। दुष्ट जीव प्रावे नहीं पास । जो आवे तो लहे सुवास ।। ८६ ।। जो विवहार ध्यान इम ध्यावे । इन्द्रादिक पदवी ते पावे ।। अर्थ-जो मनुष्य इस प्रकार से ध्यान का अभ्यास करता है उसे किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होता । इन्द्रादिक उसके चरणों की सेवा करते हैं उसे सब प्रकार की ऋद्धियों और सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है-८६ ऐसे व्यक्ति को सर्प पुष्पमाला समान, सिंह हिरण के समान हो जाते हैं । अग्नि पानी में परिवर्तित हो जाती है और व्याघ्र गाय के बछड़े के समान हो जाता है-८७ समुद्र चोबचे के समान, विकट अटवी नगर समान, शत्र मित्र समान हो ध्यान कैसे करना ? -~-बहुत समय तक सुविधा (आसानी) से बैठ सकें ऐसे आसन से बैठ कर पवन बाहर न जावे इस प्रकार दृढ़ता से दोनों होंठ बन्द करके नासिका के अग्रभाग पर दोनों दृष्टि स्थापन करें। ऊपर के दातों के साथ नीचे के दांतों का स्पर्श न हो इस प्रकार दांतों को रख कर (दांतों के साथ दांत लगने से मन स्थिर नहीं होता) रजो, तमो गुण रहित, कुटी के विक्षेपों के बिना प्रसन्न मुख से पूर्व दिशा सन्मुख या उत्तर दिशा सन्मुख बैठ कर (अथवा जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा के सन्मुख बैठकर) अप्रमत्त (प्रमाद रहित) तथा शरीर को सरल (सीधे) या मेरुदण्ड को सीधे रखे कर ध्यान करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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