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________________ जो स्व को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा। मात्म ध्यान करना चाहिये-८१ अल्पाहार, अल्प निद्रा, संसार से वैराग्य भाव, लोक लाज का त्याग, तथा अपने चित्त को एकमात्र प्रभु की भक्ति में लगाने वाला-८२ ' एकमात्र मोक्ष की आशा वाला तथा अन्य सब प्रकार की दुविधा का त्यागी ऐसे जीव को ध्यान के योग्य जानना चाहिये । जो सदा संसार के दुःखों से डरने वाला है-८३ ___जो मुख से दूसरे की निन्दा न करे, अपनी निन्दा सुनकर सम परिणाम रखे, सब प्रकार की विकथा का त्याग करे, वही नर कर्मों के आने के मार्गों को रोक सकता है-८४ हर्ष-शोक को मन में न लाने वाला, शत्र -मित्र पर सम दृष्टि रखने वाला, दूसरों की आशा छोड़कर सदा स्वालम्बी रहने बाला तथा संसार से वैराग्य भाव वाला, पर के सहारे से निरपेक्ष इत्यादि गुणों वाला मनुष्य ही इस ध्यान को २६-ध्यान का स्वरूप-एक आलम्बन में, अन्तमहर्त तक मन को स्थिर रखना, यह छद्मस्थ योगियों का ध्यान कहलाता है । वह धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान दो प्रकार का है । और योग का निरोध रूप ध्यान अयोगियों (चौदहवें गुणस्थान वालों) को होता है। . एक महूर्त ध्यान में रहने के बाद ध्यान सम्बन्धी चिन्ता हो अथवा आलम्बन के भेद से दूसरा ध्यानान्तर हो (परन्तु एक महूर्त से अधिक एक ही आलम्बन में ध्याता अधिक नहीं रह सकता)। ध्यान में वृद्धि करने के लिए ध्यान भंग हो जाने पर उसे फिर ध्यानान्तर के साथ जोड़ने के लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता इन चार भावनाओं को प्रात्मा के साथ जोड़ें। (इन भावनाओं का स्वरूप देखें परिशिष्ट में)। . ध्यान करने का स्थान-ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण भूमियों में जाना चाहिये । इसके अभाव में ऐसे स्थान पर ध्यान करें, जो स्त्री, पशु, नपुंसकादि रहित कोई भी उत्तम एकांत स्थान हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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