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________________ एक माया हजारों सत्यों का नाश कर डालती है। अथवा प्राणायाम जे, साधे चित्त लगाय । ताकुं पहली भूमिका, सिद्ध स्वरोदय थाय ॥ ४८॥ अर्थ-स्वरोदय को साधन के लिए सब लौकिक कार्यों से लक्ष्य हटा कर निश्चल ध्यान करना चाहिए तथा श्रवन, मनन और चिन्तन करना चाहिए। अथवा जो एकाग्र चित्त से प्राणायाम साधन करता है उसे पहली भूमिका रूप स्वरोदय सिद्ध होता है-४७-४८ निश्चय प्राणायाम (दोहा)-प्राणायाम विचार तो, है अति अगम अपार । भेद दोय तस जानिये, निश्चय अरु व्यवहार ॥ ४६॥ निश्चय थी निज रूप में, निज परिणति होय लीन। श्रेणी गत ज्युं संचरे, सो जोगी परवीन ॥ ५० ॥ उपशम क्षपक कही युगल, श्रेणी प्रवचन मांहि । तिण को काल स्वभाव वस, साधन हिवरणा नांहि ॥५१॥ अर्थ-प्राणायाम का स्वरूप बहुत गहन और अपार है मुख्यतया इसके निश्चय और व्यवहार दो भेद हैं-४६ निश्चय प्राणायाम से गुणस्थानों की श्रेणी को चढ़ते हुए निज (शुद्ध) परिणति में लीन होकर प्रात्मा अपने निज स्वरूप को प्रगट कर लेता है। ऐसे महापुरुष को ही वास्तव में योगी कहना चाहिए-५० ___ शास्त्रों में गुणस्थानों की श्रेणियां दो प्रकार की कही हैं। कर्मों को क्षय करते हुए श्रेणी चढ़ने को क्षपक श्रेणी कहते हैं । इस क्षपक श्रेणी को करते हुए जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्रगट करके सब प्रकार के कर्म बन्धनों से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। तथा कर्मों को शांत करते (दबाते) हुए श्रेणी चढ़ने ७-गुणस्थान प्रात्म-विकास अथवा चरित्र विकास की समस्त अवस्थाओं को जैन कर्मशास्त्र में चौदह भागों में विभाजित किया गया है जो चौदह गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध है । ये जैन चारित्र की चौदह सीढ़ियां हैं। यहां पर इनके नाम मात्र का उल्लेख कर दिया जाता है विस्तार से जानने के इच्छुक अन्य जैन ग्रन्थों से जान लेवें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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