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________________ ज्ञान मात्र से कार्य सिद्धि नहीं हुमा करती। अर्थ-जो सदा जन्म-मरण रहित, प्रकल, निराकार, निराधार निर्माता निर्भय हैं उनकी भक्ति चित्त में धारण करके-४ जिन्हें न जन्म है, न वृद्धावस्था है, न शोक है, न संताप है, सादि अनन्त स्थिति वाले, कर्म बन्धन के जंजाल को जिन्होंने काट दिया है-५ सर्व कर्म मल से रहित, सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्व प्रकार के कर्म बन्धन से मुक्त होकर शैलेशीकरण द्वारा निज आत्म प्रदेशों को घनीभूत करके चरम शरीर से दो तृतीयांश (२/३) अवगाहना से, समश्रेणी से एक समय में लोक के अन्त में सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने वाले-६ ___ सम-विषमता से अनन्त गुण-पर्यायों सहित एक-एक प्रदेश में महान् शक्ति सम्पन्न-७ रूपातीत (अरूपी), व्यतीत मल (कर्म-मल से रहित), अनन्त आनन्द आदि गुणों के धारक ऐसे ईश्वर (सिद्ध भगवंतों) को मैं चिदानन्द विनय सहित अपने मस्तक को झुकाकर नमस्कार करता हूं.-८ . सारांश यह है कि लेखक ने पद्य १ से ८ तक श्री अरिहंत भगवान्तों, सरस्वती तथा सिद्ध भगवान् को वन्दन, नमस्कार करके मंगलाचरण किया स्बर-जान (दोहा) काल ज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान । गुरु किरपा करि कहत हूं, शुचि स्वरोदय ज्ञान ॥६॥ सुर का उदय पिछानिए, अति थिरता चित्त धार। . ता थी शुभाशुभ कीजिये, भाबि वस्तु विचार ॥१०॥ नाड़ी तो तन में घनी, पिण चौबीस प्रधान । ता में दस पुणि ताहु में, तीन अधिक करि जान ॥११॥ इंगला पिंगला सुखमना, ये तीनों के नाम । भिन्न-भिन्न अब कहत हूं, ता के गुण अरु धाम ॥१२॥ अर्थ-मैं (चिदानन्द) पृथ्वी आदि मंडलों में पबन के प्रदेश और निःसरण काल के ज्ञानादि से आगम का अनुमान लेकर गुरु कृपा से प्राप्त किए हुए पवित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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