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________________ कुसंगत से धर्म का, अनाभ्यास से विद्या का नाश होता है। [३१६ रूपातीत-ध्यान आकृति रहित, ज्ञानानन्द स्वरूप, निरंजन-सर्वथा कर्म रहित सिद्ध परमात्मा का ध्यान यह रूपातीत ध्यान कहलाता है। इस निरंजन सिद्ध स्वरूप का अवलम्बन लेकर निरंतर इसका ध्यान करने वाला साधक ग्राह्य-ग्राहक, लेने और लेनेवाले आदि भाव रहित तन्मयता प्राप्त करता है। योगी-साधक जब ग्राह्य-ग्राहक भाव बिना की तन्मयता प्राप्त करता है तब उसके लिये कोई आलम्बन रहा हुआ न होने से वह साधक उस सिद्धात्मा में इस प्रकार लय पाता है कि ध्यान करने वाला और ध्यान इन दोनों के प्रभाव से ध्येय जो सिद्ध उसके साथ एक रूप हो जाता है । योगी के मन की परमात्मा के साथ जो एकाकारता है वह समरसी भाव है। और उसी का ही एकीकरण होकर आत्मा' अभिन्न रूप से परमात्मा में लीन हो जाता है-लय पा जाता है । निरालम्बन ध्यान का क्रम __पहले पिंडस्थ-रूपस्थ आदि लक्ष्य वाले ध्यान के क्रम से, अलक्ष जो निरालम्बन ध्यान हैं उसमें आना । पहले स्थूल ध्येय लेकर अनुक्रम से अनाहद कला आदि सूक्ष्म ध्येयों का चिंतन करें, तथा रूपस्थ आदि सालम्बन ध्येयों से निरालम्बन सिद्ध अरूपि ध्येय में आना । इस क्रम से यदि अभ्यास किया जावे तो तत्त्वों का जानकार योगी अथवा साधक थोड़े समय में ही तत्त्व को पा सकता है। । इस प्रकार पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इस चार प्रकार के ध्यान में मग्न होने वाले मुनि-योगी अथवा साधक का मन जगत के तत्त्वों का साक्षात कर प्रात्मा की विशुद्धि करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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