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________________ ४ कोष से समतो का, अभिमान से सद्गुणों का नाश होता है। उपयोग की जागृति से बिखर जाये यदि वृत्ति जुदा न हुई हो तो उसका प्रखरै मन पर होता है, किसी विषम प्रसंग का हृदय पर आघात लगता है। मन वैसी बातों का बार-बार पुनरावर्तन करता है। चित्त स्थिर नहीं होता, विक्षेप हुआ करते हैं, विह्वलता आ जाती है। ये सब वृत्ति के मन से नष्ट न होने के लक्षण हैं। जब तक वत्ति नष्ट न हो जाय तब तक समझना चाहिये कि जाप परिपक्ब नहीं हुआ है, तथा जाप का फल नहीं मिला है अतः जाप जारी रखना चाहिये । वृत्ति छूट जाए तो उसे निर्लेप वृत्ति कहते हैं। वृत्ति निर्लेपता वाला जाप हो तो शान्ति वढ़ती है, सारे शरीर में शान्ति फैली रहती है । वृत्तियों का सर्वथा नाश होना यह तो बहुत ऊंची हद है । फिर से उत्पन्न ही न हों। ऐसी वृत्ति नाश तो चौदहवें गुणस्थान में होती है। तो भी निर्लेप जाप करने से पवन के समान वृत्ति ऊपर ही रहती है परन्तु हृदय में उसका प्रवेश नहीं होता। यह. जाप भी बन्द होकर शान्त स्थिरता रहती है। जाप करते समय यदि वृत्तियों का बल विशेष मालूम हो, विकल्प बहत उठे तो “शान्ति" शब्द का जाप करना चाहिए। इसके साथ ही वृत्ति को देखते रहना और भावना करना चाहिए कि इन वृत्तियों का नाश हो । इससे वृत्तियां कम होंगी। यदि बहुत वृत्तियां उठे तो अर्थ के साथ “सोहं, सोह" शब्द का जाप करना चाहिये। व्यवहार की क्रियाओं को निर्लेप बनाने के लिए व्यवहार के समय भी जाप चाल रखना चाहिये और वृत्तियों का बल जांचते रहना चाहिए। . उनके कारणों और परिणामों का भी विचार करते रहना चाहिए। इच्छा करते ही वृत्तियों को बदल देने का बल प्राप्त करना चाहिए । ऐसा समझना चाहिए कि पुनर्भव उत्पन्न करने वाले बीजों वाली वृत्तियां नाश होने से ही आत्मा को सच्चा सुख प्राप्त अथवा उन्नत भाव प्रगट होगा । चाहे मनुष्यों को चमत्कृत करने वाली शक्ति पैदा न हो परन्तु जो मन को मलिन और मोह को पोषण करने वाली वृत्तियां बीज रूप से सत्ता में नई प्रवेश कर अनेक बीज उत्पन्न करने वाली होती हैं उन्हें नाश करने का बल प्राप्त करना कोई साधारण लाभ नहीं है। आत्मा का पूर्ण विकास इन वृत्तियों के . नाश से ही होता है। उपशम पड़ी हुई वृत्तियां फिर निमित्त पाते ही पूर्ण वेग से बाहर आती हैं । उस समय की कराई मेहनत धूल में मिल जाती है । चमत्कारिक शक्तियां चली जाती हैं और फिर घोई हुई मूली के समान वैसे के वैसे ही हो जाते हैं । इसलिए वृत्तियों को रोकने या दबाने की अपेक्षा विचार बल से इनका नाश करना ही आत्मोन्नति का सरल राजमार्ग है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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