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________________ मनुष्य मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करें [ ३०५ तीन छत्र जिनके सिर पर सुशोभित हैं, सूर्य मंडल की प्रभा को भी मात करता हुआभामंडल जिनके पीछे जगमगाहट कर रहा है, दिव्य दुंदुभि वाजि शब्द हो रहे हैं, गीत गान की संपदा का साम्राज्य छा रहा है, जिनके शब्दों द्वारा गुंजायमान भ्रमरों से अशोक वृक्ष वाचालित होकर शोभायमान हो रहा है, बीच में सिंहासन पर तीर्थंकर प्रभु विराजमान हैं, दोनों तरफ चामर डोलाए जा रहे हैं, नमस्कार करते हुए देवों और दानवों के मुकट रत्नों से चरणों के नखों की कांति प्रदीप्त हो रही है, दिव्य पुष्पों के समूह से पर्षदा की भूमि संकीर्ण हो गई है, ऊंची गर्दनें (ग्रीवाएं) करके मृगादि पशुओं के समूह भी जिनकी मनोहर ध्वनि का पान कर रहे हैं, सिंह- हाथी, सांप-न्योला आदि जन्म जात वैर स्वभाव वाले प्राणी भी अपने-अपने वैर भावों को शांत करके पासपास में बैठे हैं, सर्व अतिशयों से परिपूर्ण, केवलज्ञान से सुशोभित तथा समवसरण में विराजित उन परमेष्ठि अरिहंत के रूप का इस प्रकार आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । राग-द्वेष और महामोह अज्ञानादि विकारों के कलंक रहित शांत-कांत-मनहर, सर्व उत्तम लक्षणों वाली, योगमुद्रा- - ध्यान मुद्रा की मनोहरता को धारण करने वाली, आंखों को महान् आनन्द तथा अद्भुत अचपलता को देने वाली, जिनेश्वरदेव की प्रतिमा का निर्मल मन से निमेषोन्मेष रहित खुली आंखें रख कर एक दृष्टि से ध्यान करने वाला रूपस्थ ध्यानवान् कहलाता है । जिनेश्वरदेव की शांत तथा आनन्दित मूर्ति के सन्मुख खुली आंखें रखकर एक दृष्टि से देखते रहें, आंखें झपकनी अथवा हिलानी नहीं चाहिये । शरीर का भान भी भूल जाना चाहिए जिससे एक नवीन दशा में प्रवेश होकर अपूर्व आनन्द और कर्म की निर्जरा होती है । इस दशा वाले को रूपस्थ धनवान कहते हैं । ऐसा कोई भी प्रालम्बन हो जिससे आत्मिक गुरण प्रगट हों तो इसे आलम्बन नाम का ध्यान कहते हैं । चित्त को एकाग्र, निर्मल एवं स्थिर करने के लिए ध्यान की आवश्यकता है । ध्यान कैसे प्रारम्भ करना चाहिए इसके विषय में यहां थोड़ा-सा विवेचन किया जाएगा। ध्यान के लिए दृष्टि की स्थिरता बहुत उपयोगी है । उसको जिस के www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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