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________________ असत्य बहुत बड़ा पाप है। सत्य, प्रिय वाणी ही ऐश्वर्य देने वाली है। [२९७ इस प्रकार आत्मा और देह के भेद को जानने वाला योगी आत्म निश्चय करनेमें-आत्मस्वरूप प्रगट करने में कभी स्खलना नहीं पाता। जिनकी आत्मज्योति कर्मों से दब गई है-तिरोहित हो गई है। ऐसे मूढ़ जीव जब आत्मा के भान को भुलाकर पुद्गल में संतोष पाते हैं । तब बहिर्भाव में सुख की भ्रांति की निवृति पाये हुए योगी आत्मा के स्वरूप के चिन्तन में ही संतोष पाते हैं। जो साधक आत्मज्ञान'को ही चाहता हो। दूसरे किसी भी भावना-पदार्थ के सम्बन्ध में प्रवृत्ति अथवा विचार न करता हो तो आचार्य निश्चय करके कहते हैं कि ज्ञानी पुरुषों को बाह्य प्रयत्न के बिना मोक्ष पद प्राप्त हो सकता है । जैसे सिद्धरस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है वैसे ही आत्मध्यान से आत्मा परमात्मपद को पा लेता है। . जैसे निद्रा में से जाग्रत मनुष्य को सोने से पहले के जाने हुए कार्य किसी के कहे अथवा बतलाये बिना ही याद आ जाते हैं वैसे ही जन्मान्तर के संस्कारों बाले योगी को किसी के उपदेश के बिना ही निश्चय तत्त्वज्ञान प्रकाशित होता है। पूर्व जन्म में भी प्रथम ज्ञानदाता तो गुरु ही होता है और दूसरे भवों में भी तत्त्वज्ञान बतलाने बाला गुरु है। इस लिये तत्त्वज्ञान के लिये गुरु की ही निरन्तर सेवा करनी चाहिये । जैसे निविड़ अंधकार में पड़े हुए पदार्थों का प्रकाशक सूर्य है वैसे ही अज्ञान रूप अन्धकार में पड़े हुए जीवों को इस भव में तत्त्वोपदेश द्वारा ज्ञानमार्ग दिखलाने वाला गुरु है । अतः सब प्रपंचों को छोड़ कर योगी को गुरु की सेवा करनी चाहिये । - योगी मन-वचन-कायो की चंचलता के बहुत प्रयत्न पूर्वक रोके और रस के भरे हुए बरतन के समान आत्मा को शांत, निश्चल, स्थिर तथा निर्मल अधिक समय तक रखे। . ... -आत्मा को स्थिर रखने का क्रम रस के पात्र में रहे हुए रस के समान आत्मा को स्थिर रखे। रस की स्थिर रखने के लिये उस रस के आधारभूत पात्र को भी निश्चल रखना ह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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