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________________ मेरा हृदय सदा सन्ताप रहित रहे । ४ - सुनिल मन की चौथी अवस्था है । यह निश्चल और परमानन्द वाली अवस्था है । जैसा नाम है वैसे ही इसके गुण भी हैं। तीसरी अवस्था के मन से भी इस चौथी अवस्था में मन को अधिक निश्चलता तथा स्थिरता होती है । इसलिये इसमें प्रानन्द भी अलोकिक होता है । इस मन का विषय आनन्द और परमानन्द है । इस प्रकार मन की उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिये क्रम से अभ्यास की प्रबलता से निरालम्बन ध्यान करे । इससे समरस भाव ( परमात्मा के साथ - अभिन्नता से लय पाकर ) प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करें । ४ -- परमानन्द प्राप्ति का क्रम आत्म सुख का अभिलाषी योगी अन्तरात्मा द्वारा वाह्यात्म भाव को दूर कर तन्मय होने के लिये निरन्तर परमात्म-भाव का चिन्तन करे | ५ - बहिरात्म भावादि का स्वरूप शरीर आदि को आत्मबुद्धि से ग्रहण करने वाले को यहां बहिरात्मा कहा है । शरीर मैं हूँ' ऐसा मानने वाला, धन, स्वजन, कुदुम्ब, स्त्री, पुत्र आदिको अपना मानने वाला, यह बहिरात्म भाव कहलाता है । ६ - अन्तरात्मा शरीर आदि का अधिष्ठाता वह अन्तरात्मा कहलाता है । अर्थात् शरीर का मैं अधिष्ठाता हूं, शरीर में मैं रहने वाला हूं, शरीर मेरे रहने का घर है अथवा शरीर का मैं दृष्टा हूं। इसी प्रकार धन, स्वजन, कुटुम्ब, स्त्री, पुत्रादि संयोगिक है तथा पर हैं । शुभाशुभ कर्म विपाक जन्य ये संयोग वियोग में हर्ष - शोक न करके द्रष्टा मात्र रहे यह अन्तरात्मा कहलाती है । ७ - परमात्मस्वरूप ज्ञान स्वरूप, आनन्दमय, समग्र उपाधि रहित, शुद्ध, इन्द्रिय प्रगोचर, तथा अनन्त गुणवान । यह परमात्मा का स्वरूप है । ८ - योगी स्खलना नहीं पाता आत्मा से शरीर को जुदा जानना तथा शरीर से आत्मा को जुदा जानना; For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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