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________________ सभी विश्व मन के वश में है । · माता, भगिनी, आदि अथवा धनादि का वियोग अर्थात् नष्ट हो जाना, उससे जो चिन्ता, पश्चाताप, तथा अनेक तरह से व्याकुल होना, अर्थात् प्रार्त्त होना, यह इष्ट-वियोग है । जिस वस्तु का संयोग होने से प्रार्त प्रर्थात् चिन्ता उत्पन्न हो, उसको अनिष्ट संयोग कहते हैं । जैसे कि कलह-कारिणी स्त्री अथवा पति, कुपात्र पुत्र, दु:ख-दाई पड़ौस, घर में सर्पादि दुष्ट जीवों का रहना, इत्यादि अनेक संयोगों के नष्ट न होने का नाम श्रनिष्ट- संयोग है । रोगादि शरीर में उत्पन्न होने से, और रोग के न जाने से, उसका उपाय करने की अष्ट प्रहर चिन्ता, उसको रोग ग्रसित ध्येय कहते हैं । आगामी काल का जो आर्त- अर्थात् चिन्ता उसको अग्र सोच ध्येय कहते है । जैसे कि अग्रिम वर्ष में ऐसा ऐसा होगा, क्योंकि इस वर्ष में ऐसा हुआ है, तथा पिछले वर्ष में ऐसा हुआ था इस कारण से इस वर्ष में भी ऐसा हीहुग्रा, ऐसा ही श्रागे को होगा, उसका नाम अग्रसोच 'येध्य है । रौद्र ध्येय के चार भेद १ हिसानुबन्धी, २ मृषानुबन्धी, ३ चौरानुबन्धी, परिग्रहरक्षानुबन्धी। इन चारों ध्येयों का विस्तार से वर्णन करते हैं— हिसानुबन्धि रौद्र ध्येय का स्वरूप आप हिंसा करनी श्रर्थात् जीव को मारना, अथवा कोई दूसरा मनुष्य जीवों को मारता हो उसको देखकर प्रसन्न होना, अथवा दूसरों से कहकर हिंसा करवाना | अथवा युद्धादि को सुनकर उसका अनुमोदन करना । इस प्रकार जीवमारने में जिसका परिणाम है वह हिसानुबन्धि रौद्र ध्येय है । इसमें जिसका चित्त मग्न है, वह मनुष्य बदला देता है, और दुर्गति में जाता है । सो इस विषय में दो दृष्टांत दिखाते हैं जैन शास्त्रों में खन्दकजी ने पिछले भव में काचरी ( चीबड़) फल का एक छिलका समस्त (साबूत) उतारा। फिर वह काचरी का जीव मरकर राजा हुआ, और खन्दकजी की चोटी से लेकर पैर के अंगूठे तक की खाल उतरवाई | ऐसे ही वैष्णव मत के भक्तमाल में सजन कसाई की कथा है, कि सजन कसाई के पास एक सरकारी सिपाही श्राया और बोला कि, सेर भर मांस दे । 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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