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________________ समयपर प्राप्त उचित वस्तु की अवलेहन.. खंडन इस जगह दिखाते हैं इस विषय में युक्ति यह है कि इसको यह पूछना चाहिए, कि तू जीव का निषेध करता है, सो देखे हुए का अथवा बिना देखे हुए का निषेध करता है ? जो तू कहे कि बिना देखे हुए का निषेध करता हूं, तो यह कथन तेरा ही बाधक है, क्योंकि न देखी हुई वस्तु का निषेध नहीं बन सकता । जो तू कहे कि देखे हुए का निषेध करता हूं, तो यह कहना भी उसका उन्मत्त के समान है; जैसे कोई पुरुष कहे, कि "मम मुखे जिह्वा नास्ति" मेरे मुख में जीभ नहीं है । यदि तेरे मुख में जीभ नहीं है तो बोलता किससे है ? तेरे बोलने से ही जिह्वा प्रतीत होती है । इस रीति से देखे हुए भी जीव का निषेध नहीं बन सकता। इस वास्ते तेरे कथन से जीव सिद्ध हो चुका, तू देखी हुई वस्तु का निषेध करता है, इसीलिए तुझको नास्तिक कहते हैं । यह प्रत्यक्ष प्रमाण से जीव का स्वरूप बतला दिया । चाहिए । इस जगह हमने ५७ बोलों में से प्रत्यक्ष प्रमाण तक ही लिख दिया । इन ५७ बोलों का विशेष विस्तार हमारे रचे हुए 'स्याद्वाद अनुभव - रत्नाकर' में हैं । इसलिये यहां पर न लिखा । क्यों कि जो बात एक ग्रन्थ में लिखी जा चुकी है, उसी बात को दूसरे ग्रन्थ में लिखना उचित नहीं । इस रीति से पदार्थों को जान कर अपने कल्याण को करे । परन्तु ध्येय रूप धारण से दो प्रकार का ध्यान होता है । सो एक धारणा तो संसार रूप कर्म-बन्धन अर्थात् जन्म-मरण का हेतु है, और दूसरी मोक्ष का कारण है । इस स्थान पर प्रथम संसार - हेतु ध्यान को दिखाते हैं । इसके दो भेद हैं, १ दुर्गति को ले जाने वाला, २ शुभ गति को ले जाने वाला । धारणा में जो ध्येय रूप है, उसका स्वरूप कहते हैं - १ आर्तरूप ध्येय, २ रौद्ररूप ध्येय | इस एक एक ध्येय के चार चार भेद हैं । श्रार्तरूप ध्येय के चार भेद १ इष्ट-वियोग, २ अनिष्ट संयोग, ३ रोग ग्रस्ति, ४ अग्र- सोच ( भविष्यचिन्तन) । इष्ट वस्तु का वियोग अर्थात् दूर होना, जैसे वल्लभ ( प्रिय) पुत्र, स्त्री, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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