SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । ममा ही यश है, क्षमा काम है, क्षमासे ही चराचर जगत किया है। " क्यापिकामा भय भी जाता रहा । परन्तु सेठ अपने चित्त में उस लड़के के हृदय में सानि उत्पन्न कराने के लिए उपाय सोचने लगा तथा उस लड़के को विश्वास दिलाने के लिए प्रतिदिन सायंकाल को चार घड़ी दिन रहने से ही वह सेठ अपने पुत्र से कह देता था कि तेरे भ्रमण का समय ही गया और यह काम तो पीछे से भी होता रहेगा। इस रीति से जब दो चार महीने हो गए तब तो वह साहूकार का पुत्र वेश्या के यहां अधिक जाने लगा और नाच-रंग कराने लगा और रुपया खूब उड़ाने लगा। यार-दोस्तों को भी बुलाने लगा, क्योंकि पहले तो पिता का भय था और अब तो पिता ने आप ही जाने की आज्ञा दे दी थी। ऐसा करते-करते चन्द दिन व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन उसके पिताने विचार किया, कि आज इस समय न जाने दूं और प्रात: समय इसको भेजूं, तो शायद इसको ग्लानि हो जाए । ऐसा विचार कर उस साहूकार ने उस दिन दूकान पर विशेष काम फैलाया और अपने पुत्र को फरमाया कि हे पुत्र ! आज कुछ विशेष काम दूकान पर है । यदि आज यह दूकान का काम न होगा, तो विशेष हानि होगी, इसलिए आज तुम इस समय न जाओ, बल्कि इसके बदले प्रातःकाल सर कर आना । यह सुनकर साहूकार का लड़का अपने दिल में विचारने लगा, कि यथार्थ में काम आज अधिक है । जो मैं चला जाऊंगा तो लाखों रुपयों की हानि होगी। यह विचार कर उस दिन न गया, काम-काज को समाप्त करके अपने घर जाकर सो गया। फिर उस साहूकार ने प्रातः समय, जबकि पीले बादल हुए, अपने पुत्र को जगाया और कहने लगा, कि तू कल सायंकाल को सैर करने नहीं गया था, सो इस समय सैर कर आ । उस समय वह साहूकार का पुत्र उठा और पिता के कहने से सैर करने को चल दिया। तब उस साहूकार ने घर में आकर अपनी स्त्री से कहा कि तू अपनी पुत्र-वधूसे कह दे कि जिस समय तेरा पति वेश्या के घर से आवे, उस समय तू उसका विशेष हाव-भाव से सत्कार करना, जिससे उसका वेश्या-गमन छूट जाए। इतना सुनकर वह स्त्री अपनी पुत्र-वधू को समझा आई। इधर साहूकार का पुष जिस वेश्या के पास जाता था, उसके पास पहुंचा और जिसका रूप सायंकाल को देखकर मोहित होता था, सो प्रातःकाल उसको सोती हुई देखकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy