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________________ है मनुष्य ! तु ऊपर चढ़, नाचे न गिरना समय जिस आचार्य ने देखा कि इस जिज्ञासु को उपद्रव है, वह उपद्रव उस देवता के संयोग से मिट जायेगा, उस समय उस देवता के नाम को ऊपर लिखी रीति से जानकर मन्त्र में लगाया, मन्त्र जिज्ञासु को बताया, गुरु ने हुक्म फरमाया, तीन बार पढ़ने से जिज्ञासु को प्रत्यक्ष हो आया, उसी समय उसका काम बजाया । देखिये, जिस समय वराहमिहिर मर कर नीच योनि का देवता बना और श्रावकों को उपद्रव करने लगा उस समय श्रावकों के उपकार के लिये श्रीभद्रवाहु स्वामी ने श्री पार्श्वनाथ स्वामी की मन्त्र गभित ‘उवसग्गरहरं' की स्तुति बनाई, फिर श्रावकों ने गुणा (जप किया) और धरणेन्द्र तथा पद्मावती पाई, उन्होंने उन्हें अपना दुःख कहा जिसको उन देवों ने उसी समय दूर किया, उपद्रव मिटने के बाद भी गृहस्थियों ने हर समय उनको बुलाया और घर का काम सौंपा। अनेक काम कराया जब उनका चित्त घबराया तब गुरु महाराज से पाकर प्रार्थना करने लगे कि स्वामिनाथ ! जो उपद्रव करने वाला था उसको तो हमने दण्ड देकर समझा दिया इसलिए उपद्रव तो अब कुछ नहीं है परन्तु श्रावक लोग हम को चैन नहीं लेने देते हर समय बुलाते हैं घर का काम तराते हैं हम घड़ी भर भी चैन नहीं पाते हैं । इसलिए आप कृपा कर इस फन्दे से हमें छुड़ाओ, जो किसी का ऐसा ही काम होगा तो हम वहां बैठे ही कर देंगे। यह सुनकर गुरु महाराज कहने लगे कि तुम अपने स्थान को जामो इस नाम से फिर मत आयो, नाम की स्थापना मिटाई, धरणेन्द्र पद्मावती अपने घर को गये, इस रीति से गाथा का भण्डार हो गया । . ... कदाचित् कोई अपनी जिद्द करके गाथा का भण्डार ऐसे न माने तो गाथा प्रत्येक स्थान पर मिल जाती है, फिर उसके पढ़ने से धरणन्द्र और पद्मावती क्यों नहीं आते हैं ? इसी विषय में हम दूसरा भी दृष्टान्त लिखते हैं- . .. जैसे किसी मनुष्य के देश, नगर ग्राम में उसके माता-पिता या नगर के लोग नाम लेकर बोलते थे परन्तु जब वह साधु हो जाता है, तब गुरु पहला नाम उठाकर दूसरा नाम देते हैं, तब वह प्रथम नाम से कदापि नहीं बोलता है। इसी रीति के अनुसार नाम का भण्डार मानो, ऐसे ही गाथा का भण्डार भी मानो ऐसे ही महादेव की कीलन भी जानो, व्यर्थ की बातों में विश्वास मत करो, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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