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________________ असत्य मृत्यु है, और सत्य अमृत हैके झगड़ों से अपने को छिपाते हैं । ___ यह कहना भी तुम्हारा अयुक्त है, क्योंकि जिन' उपाधियों का नाम अब लिया, वे पहले भी थीं, जब उन्होंने योग लेकर आत्मा का साधन किया, तब मनुष्यों ने उनके गुण से उनको पहचाना था, उस समय में भी वह वन था। और कन्द-मूल-फलादि भी जैसे तब थे, वैसे अब भी हैं, तो फिर उस समय में भिक्षा मांगना और इस समय न मांगना, किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? दूसरा, अब जैसे सांसारिक लोग स्वार्थ सिद्धि के वास्ते योगियों को सताते हैं, उसी प्रकार उस समय में भी स्वार्थ सिद्धि के वास्ते खोजते फिरते होंगे। बल्कि जैसा उस समय लोगों का योगियों के वचन पर विश्वास था, वैसा इस समय नहीं रहा। क्योंकि दुःखभित और मोहभित वैराग्य वाले सिर मुण्डा कर वाह्यक्रियादि दिखाते हैं, मिल्लत हथफेरी आदि करके लोगों को चमत्कार दिखाते हैं, आखिर में झूठ, कपट, धूर्तता के फंद खुल जाते हैं, फिर मनुष्यों को प्रत्येक के ऊपर से विश्वास उठ जाता है और जो पहले के योगी महात्मा थे, वे ऐसा नहीं करते थे। इसलिए आपके कथनानुसार वे योगी जगत् में पहले की तरह भ्रमण करें तो बहुत लोगों का उपकार हो, मनुष्यों को विश्वास हो जावे, उन साधुओं को अदत्ता अर्थात् चोरी का दोष भी न लगे, और प्रारम्भ से भी बच जाएं। ___ इसलिए जैसा उपकार उनके प्रत्यक्ष फिरने में है, वैसा गुप्त रहने में नहीं, बल्कि जगत् और उनकी दोनों की हानि है और जो मनुष्य लोगों में प्रसिद्धि करते हैं कि हमको भर्तृहरि आदि योगी और शुकदेवादि महात्मा मिले थे उनसे जब हमने दण्डवत् प्रणामादि किया, चरण कमल पकड़ कर प्रार्थना की, तब उन्होंने हमारे ऊपर कृपा करके योग बताया, उससे हमने यह फल पाया, ऐसा कहने वाले पुरुष महा असत्यवादी, कपटी, अपनी आत्मा को डुबोने वाले हैं, वे लोग उन महात्माओं का नाम लेकर लोगों को बहकाते हैं, अपने को पूजाते हैं, लोगों को ठगने का जाल फैलाते हैं । हां, कितने ही आत्मार्थी, मनुष्य पूर्वतादि वनों में रहते है और आस-पास के ग्रामों में मौका पाकर भिक्षा ले जाते हैं, फिर अपना आत्म-ध्यान जमाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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