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________________ लोक विरुद्ध कार्यो का त्याग कुरा मुख्य कहते हैं, परन्तु सैकड़ों तरह की ब्राह्मणों में जातियां प्रसिद्ध जातियों के नाम लिखावें तो एक ग्रंथ पृथक ही बन जाय । जैसे ही क्षत्रियों में चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी प्रसिद्ध हैं, परन्तु इनमें भी अनेक तरह के भेद हैं इसी प्रकार वैश्यों में साढ़े बारह न्यात बाजती हैं, परन्तु उनमें अनेक जातियां हैं, ऐसे ही शूद्रों में भी अनेक तरह के हैं। वैसे ही चार निकाय के देवताओं में मनुष्यों की तरह अनेक प्रकार की जातियां हैं । भूत, प्रेत, पिशाच, खबीश, जिन्द, मसान, राक्षस, झोटिंग, काचाकलुआ, आदि नीच जाति के देव हैं, भैरव - वीरादि इनसे उत्तम हैं, यक्ष यक्षणी उनसे उत्तम है । इस रीति से देवताओं की जातियां हैं । ये सब वैक्रिय शरीर वाले हैं । 1 यह वैक्रिय शरीर वाले औदारिक शरीर वाले की दृष्टि में नहीं आते । इसलिये यदि वे इच्छा करें तो प्रौदारिक शरीर वाले के शरीर में घुसकर 'इच्छानुसार बातें करें, अथवा अपने मनुष्य जन्म के औदारिक शरीर के अनुसार वैक्रिय शरीर को बनाकर प्रत्यक्ष दिखाई दें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । नहीं मिला यह प्राश्चर्य उन्हीं को उत्पन्न होता है जिनको यथावत् सद्गुरु का योग यह है कि जैसे और उन भूत-प्रेतादि की बातों में अन्तर भी पड़ता है, इसका कारण के सामने अनेक प्रत क। आ मनुष्यों में क्षुद्र मनुष्य, अपनी तारीफ अनभिज्ञों (अनजानों) है, चित्त में विचार कर अपनकार से करता है, अपनी शक्ति से बाहिर की बात सुनाता अपनी तुच्छ शक्ति को रोकना कि कुछ नहीं लगता हैं; उसी प्रकार वे भूत-प्रेतादि भी के झूठ-सत्य दर्शाते हैं, कोहूर्त में उसबिना बिचारे अनजान मनुष्यों के सामने अनेक तरह ने पर योगरे गाल बजाते हैं, अपनी शक्ति से बाहिर बात कर झूठे बन जाते हैं । इसलि जिस रीति से इस मत्यलोक में प्रवृत्ति करे :ए उनके वचन में असंभवता होनी ठीक है । होते हैं और उनके बल, बुद्धि, प्रभ न पीछे उपसे-जैसे मनुष्यों की जाति, कुल, उत्तम उत्तम ही वचन निकालते हैं कि जिस काम लिये मुमुक्ष को कर सकें । वे अपने वित्त से बाहिर ग (दूसरे की भी अधिक अधिक होते हैं वे वैस 'पुरुष वचन को न निकालेंगे, अपनी प्रतिज्ञा १-रने की श्री पालेंगे, ऊंच नीच को संभालेंगे, www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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